Tulsidas / तुलसीदास (Chapter-2 / अध्याय-२)
October 27, 2022 | by storykars

अपनी बाल्य-स्मृति के आधार पर, जैसा बाबा Tulsidas का जीवन चरित हमनें पढ़ा और जैसा हमें याद रहा, वही हम यथासम्भव शोध के पश्चात् अपने पाठकों के लिए Hindi Kahani के रूप में लिखने का प्रयास कर रहे हैं । Hindi Kahani एक विधा है जिसके द्वारा विभिन्न तथ्यों, घटनाओं, लोगों, स्थानों को अपनी मातृभाषा में रोचक और सरल ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं ।
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गतांक (Tulsidas / तुलसीदास (Chapter-1 / अध्याय-१)से आगे –
साधु-जीवन और राम-कथा की खोज
पत्नी से गृहस्थी त्यागने की बात कहकर उसके घर को छोडकर अपनी खोज में निकल पड़े तुलसीदास (Tulsidas) की व्यथा साधारण नहीं थी। दरअसल उनका जीवन ही साधारण या सामान्य लोगों जैसा नहीं था। शायद बचपन में मातापिता को खो देने से और बिना भाई बहनों के बड़े होने के दौरान तुलसीदास (Tulsidas) के अवचेतन मन में एक परिवार के होने की प्रबल इच्छा रही हो। या फिर कोई मनोवैज्ञानिक कारण हो कि तुलसीदास (Tulsidas) एक पल के लिए भी अपनी पत्नी से अलग नहीं हो चाहते हों।
जो भी हो,पत्नी के झुंझलाहट भरे व्यवहार से तुलसीदास का प्रेमलोक काँच के महल के सामान टूटा और बिखर गया। अचानक एक बंधन टूट गया। जिसे अपना संसार माना जब वो ही मेरा नहीं है तो बाकी संसार से मोह का कोई कारण ही नहीं। हालाकि रत्नावली उस समय भी , तुलसीदास (Tulsidas) के मन में जो घटा था उसे एक सामान्य बहस मानते हुए यह मान रही थी कि गुस्सा हैं , लौट कर आ ही जाएँगे।
रत्नावली का विचार सही नहीं था। तुलसीदास (Tulsidas) के मन में एक ऐसी आग जल चुकी थी जो बुझ नहीं सकती थी। मानो नशे में थे और उनके मुंह से निरन्तर ‘हरि-प्रेम’ ‘प्रभु-प्रेम’ आदि स्वर निकल रहे थे। उनके मन में बैराग जाग गया था। उनके हृदय से पत्नी का मोह जा चुका था। लगता था मानो युवक प्रेमी तुलसीदास (Tulsidas) मर चुका था और एक नया बैरागी तुलसीदास (Tulsidas) जन्म ले चुका था।
वे लगातार बढ़े जा रहे थे। पत्नी का गांव पीछे छूट गया। और सामने उजाड़ झाड़-झंझाड़ और पेड़ थे। आधी रात से काफी अधिक समय हो चुका था। ठंडी हवा सांय-सांय कर रही थी और उस हवा पर तुलसीदास (Tulsidas) के मुंह से निरन्तर निकलते शब्द तैर रहे थे -‘राम-राम,’ ‘हरे-हरे।’
तुलसीदास (Tulsidas) न जानते हुए भी सोरों, अपने गुरु के आश्रम की ओर बढ़े जा रहे थे। दिन निकलते-निकलते वे सोरों पहुँच गए और सीधे जाकर बाबा नरहरिदास के चरणों में गिर पड़े। बाबा ने उनकी वह दशा देखी। उन्होनें तुलसीदास को उठाया, पास बैठाया और सब बात पूछीं। तुलसीदास(Tulsidas) ने शान्त होने पर सब कुछ बताया
और उनसे प्रार्थना की कि उन्हें तुरन्त दीक्षा दे दी जाए। बाबा सोच में पड़ गये। अभी विवाह को दिन ही कितने हुए हैं। उन्होंने कुछ दिन इन्तज़ार करना तय किया। पर तुलसीदास की जो (Tulsidas) दशा थी उसे देखकर बाबा समझ गए कि अब यह युवक वापस घर नहीं जाएगा। उन्होंने तुलसीदास(Tulsidas) को अन्तिम बार समझाने की कोशिश की।
तुलसी अपने हठ पर अड़ गए। तब एक दिन शुभ मुहूर्त में उन्होंने अपने प्रिय शिष्य तुलसीदास (Tulsidas) को दीक्षा दे दी। तुलसीदास ने सदा के लिए गृहस्थी का पहनावा त्याग दिया और भगवे कपड़े पहन लिए।
अब तुलसीदास (Tulsidas) ने बाबा से प्रार्थना की, राम की रहस्यमयी कथा सुनाइए’ तुलसीदास (Tulsidas) ने कहा कि आज तक मेरा हृदय इस पवित्र कथा को सुनने के लिए और इसके मर्म को ग्रहण करने के लिए अन्दर से तैयार नहीं था। दुनियाँ के लोभ, मोह और लगाव उसे जकड़े हुए थे। जिस संसार को कानन वन मानकर मैं भटक रहा था, आज मैं जान गया हूँ कि वह तो दिशाहीन मृगमरीचिका है जिसका कोई अंत नहीं है।
इस अंतहीन तृष्णा के बंधन को तोड़कर प्रभु श्रीराम की शरण में जाने को मैं आज तैयार हूँ। मेरे हृदय में श्रीराम की भक्ति उपजी है। बाबा यदि मुझे वह कथा एक बार फिर सूनाएँगे तो यह भक्ति दृढ़ होगी और बचे-खुचे सारे मोह कर जाएंगे।
बाबा ने तुलसीदास (Tulsidas) के मन की थाह ली और समझ लिया कि इस समय इसे राम का चरित्र सूनाना वैसा ही है जैसे गीली उपजाऊ मिट्टी में बीज डाल देना।
नरहरिदास जी ने तुलसीदास (Tulsidas) को राम की कथा शुरु से सुनाई। जितनी भक्ति और जितना ज्ञान बाबा ने अब तक पाया था वह सब उन्होंने इस कथा में भर दिया। राम को उन्होंने एक आदर्श पुरुषोत्तम राजा और राक्षसों का नाश करने वाले, सन्तों को सुख देने वाले अवतार के रुप में दिखाया।
सुनते-सुनते तुलसीदास की आंखों में आंसुओं की धारा वह निकली। मन का बचा-खुचा मैल भी धुल गया और उन्होंने मन ही मन अपनी बाकी ज़िन्दगी को राम की सेवा में सौप दिया।
‘तुलसीदास (Tulsidas) कुछ समय सोरों में ही रहे। फिर बाद में उन्होंने सोरों त्याग कर काशी में रहना तय किया। गुरु से आज्ञा लेकर वह काशी की ओर चल दिए और वहाँ जाकर राम की भक्ति में लीन रहने लगे। काशी आने का तुलसीदास(Tulsidas) का एक मतलब यह भी था कि यहां पढ़ने-लिखने की सुविधा थी।
वैष्णव धर्म की सभी प्रकार की किताबें यहां मिलती थीं और साथ ही राम को लेकर जितनी भी किताबें अब तक लिखी गई थीं वे सब यहां पढ़ने के लिए मिल सकती थीं। काशी में रहकर तुलसीदासजी (Tulsidas) ने खूब पढ़ा। भक्ति की लगातार साधना की और यहीं उनके मन में भगवान राम के दर्शनों की इच्छा भी जागी।
प्रेत और तुलसीदास (Tulsidas)
तुलसीदास को भगवान राम के दर्शन किस तरह हुए, इस विषय में एक कथा है। कथा इस प्रकार है। तुलसीदास काशी में रहते हुए गंगा के पार जाकर ध्यान किया करते थे। हाथ-पैर धोने के बाद उनके लोटे में जो जल बचता था। लौटते समय उसे वे एक बेरी के पेड़ की जड़ में डाल दिया करते।
उस बेरी के पेड़ पर एक आत्मा रहती थी। इस जल से खुश होकर एक दिन उस आत्मा ने इनसे बात की और वर मांगने को कहा। इन्होंने कहा, “मैं भगवान राम के दर्शन करना चाहता हूँ। इस विषय में कुछ सहायता कर सको तो करो।”
आत्मा ने कहा, “मैं राम के दर्शन कर सकती तो इस अवस्था में क्यों रहती।” आत्मा ने कहा, “मैं एक बात बता सकती हूँ। कर्णघंटा नामक जगह पर राम की कथा होती है। उसे सुनने के लिए एक कोढ़ी प्रतिदिन वहां आता है। वह सबसे पहले आता हैं और सबसे बाद में जाता है। वह कोढ़ी साक्षात् हनुमान हैं जो वेश धरकर कथा सुनने आते हैं। तुम उनके पैर कसकर पकड़ लो तो वे ही तुम्हें राम के दर्शन करा सकते हैं ।
तुलसीदास (Tulsidas) ने ठीक ऐसा ही किया। वे कर्णघंटा नामक जगह पर जा पहुंचे। उन्होंने देखा, सबसे पहले एक कोढ़ी आकर एक कोने में बैठ गया है। वे भी बैठ गए और उस कोढ़ी की नजर रखने लगे। कथा समाप्त हुई। आने वाले अपने-अपने घर चले गए। तब वह कोढ़ी उठा और एक ओर चल दिया।
तुलसीदास जी ने उसका पीछा किया एक सुनसान जगह पर पहुँच कर उन्होंने कोढ़ी वेशधारी हनुमान के पैर पकड़ लिए। हनुमान जी ने पहले तो बच निकलने की कोशिश की। पर जब तुलसीदास (Tulsidas) ने छोड़ा ही नहीं तो उन्होने अपना रुप प्रकट किया और राम के दर्शन के विषय में उपाय सुझाया, चित्रकूट जाओ। वहीं तुम्हें राम के दर्शन होंगे।”
प्रभु श्रीराम के दर्शन
हनुमानजी के निर्देशानुसार तुलसीदास चित्रकूट के लिए चल दिए। कहते हैं कि तुलसीदास चित्रकूट की ओर चले जा रहे थे तो मार्ग में इन्हें दो सुन्दर युवक मिले जो अपने अपने घोड़े को दौड़ाते चले जा रहे थे।
अतीव सुंदर और शुभ लक्षणों से युक्त इन राजकुमारों में से एक तो गौरवर्णी था और दूसरे का वर्ण कुछ श्यामल था।तुलसीदास ने इन युवकों की ओर देखकर भी ध्यान नहीं दिया और अपनी धुन में खोए हुए रास्ते पर चलते गए।
कुछ ही पल बाद हनुमानजी ने प्रकट होकर पूछा कि, “रामचन्द्रजी के दर्शन किए या नहीं। “नहीं तो।” तुलसीदास (Tulsidas) ने उत्तर दिया, “पर अभी दो घुड़सवार इधर से गए हैं।”
“अरे, वही तो राम और लक्ष्मण थे।” हनुमानजी ने बताया।
सुनकर तुलसीदास पछतावे से भर गए और गा उठे –
लोचन रहै बैरी होय !” अर्थात, हमारी आंखें ही हमारी दुश्मन हो गई। तुलसीदास (Tulsidas) जी के नेत्र सजल हो गये और रह रह कर पछताने लगे।उनका दुःख देखकर हनुमान जी द्रवित हो गये और उन्होंने तुलसीदास जी को सांत्वना दी और साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि धैर्य धारण करो ! मेरे प्रभु श्री राम तुम्हें पुनः दर्शन शीघ्र ही देंगे।
तुलसीदास चित्रकूट पहुँच गए। कहते हैं, संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुद्धवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम और लक्ष्मन पुनः प्रकट हुए और फिर तुलसीदास जी को दर्शन दिये।
ऐसा हुआ कि तुलसीदास एक दिन चित्रकूट के रामघाट पर बैठकर पूजा के लिए चन्दन घिस रहे थे।तभी आठ-नौ वर्ष के दो बहत ही सुन्दर बालक वहां आए और उन्होंने बड़े ही प्यार से कहा, “लाइए बाबा ! हम आपको चन्दन लगा दें।”
और उन दोनो ने अपने हाथ से तुलसीदास को चन्दन लगाया पर तुलसीदास (Tulsidas) राम के ध्यान में इतना विभोर थे कि वे नहीं पहचान सके कि ये दोनों बालक राम और लक्ष्मण थे।
हनुमान जी यह लीला देख रहे थे अतः तुलसीदास जी को सावधान करने के लिए तोते का भेष बनाकर उन्हें लक्षित करते हुए कहा –
“चित्रकूट के घाट पर, भई सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसै, तिलक लेत रघुवीर।।
अर्थात, चित्रकूट के घाट पर साधु इकट्ठे हुए हैं । तुलसीदास (Tulsidas) चन्दन घिस रहे हैं और रघुवीर भगवान श्रीराम उन्हें तिलक कर रहे हैं ।
यह सुनते ही तुलसीदास जी अचानक चैतन्य हुए। अभूतपूर्व रूपराशि के सागर उन दोनों छोटे छोटे बालकों के रूप में लीला करने आये अपने प्रभु को उन्होंने पहचान लिया और हडबडाकर उनके चरणों में गिर पड़े।
तुलसीदास जी भावविह्वल होकर श्री राम-लक्ष्मण जी के चरणों में अश्रुपात करते हुए श्री राम-श्रीराम की रट लगाये जा रहे थे। श्री हनुमान जी यह सब देख रहे थे। तुलसीदास जी का जीवन धन्य हो गया था।
क्या श्रीराम-लक्ष्मण जी के दर्शन इतनी सहजता से तुलसीदास जी को हो गए थे ?नहीं ! यह साध तो हनुमान जी के आशीर्वाद के साथ साथ तुलसीदास जी की अखण्ड श्रध्दा और अनवरत तपस्या के परिणामस्वरूप पूरी हो सकी थी।
राम के दर्शनों के बारे में एक घटना और कही जाती है। कहते हैं, एक दिन तुलसीदास (Tulsidas) घूमते-घूमते चित्रकूट से काफी दूर गांवों में निकल गए। एक जगह रामलीला हो रही थी। लंका-विजय हुई और विभीषण को राजतिलक करके राम, लक्ष्मन और हनुमान अयोध्या लौट चले।
तुलसीदासजी को यह लीला बहुत ही पसन्द आई। रास्ते में एक ब्राह्मण से उन्होंने इस लीला का जिक्र किया। वह ब्राह्मण भौचक्का रह गया और बोला.. “महाराज, इस कार्तिक के महीने में रामलीला कहां ?”
यह सुनकर तुलसीदास जी (Tulsidas) को फिर बहुत पछतावा हुआ। तब भी वे राम को साक्षात् नही पा सके थे। पर हनुमानजी ने प्रकट होकर उन्हें समझाया, इस कलियुग में भगवान के साक्षात् दर्शन किसी को नहीं हो सकते। तुम भजन में लगे रहो।”
तुलसीदास चित्रकूट से काशी लौट आए और राम की भक्ति में लीन रहने लगे।
हनुमानजी और बाबा तुलसीदास (Tulsidas)
हनुमान जी के विशेष कृपापात्र थे बाबा तुलसीदास जी । हनुमान जी ने तुलसीदास जी को श्री राम –लक्ष्मण के दर्शन का मार्ग और विधान सुझाया था।
और जनश्रुतियों की मानें तो श्री हनुमान जी ने प्रभु श्री राम के इस समर्पित भक्त को बिना मांगे ही अभय का वरदान दे दिया था। कितनी ही कथाएं मशहूर हैं कि किस तरह हनुमानजी ने तुलसीदास जी की रक्षा की।
कहते हैं, एक बार काशी के ब्राह्मण ने तुलसीदास को मार डालने के लिए कुछ बदमाशों को भेजा। पर उन बदमाशों ने देखा कि हनुमान जी की डरावनी सूरत तुलसीदास की रक्षा कर रही है। वे डरकर भाग गए।
काशी नगर के कोतवाल ने भी एक बार तुलसीदास (Tulsidas) को कष्ट पहुँचाने की कोशिश की थी। कहते हैं, तब भी हनुमान जी ने ही अपने भक्त का बचाव किया।
यह भी कथा है कि एक बार मुग़ल बादशाह ने तुलसीदास को बुलाकर जेल में डाल दिया था। संभवतः यह घटना आगरा के फतेहपुर सीकरी की बताई जाती है ।
जब तुलसीदास जी ने हनुमान जी का ध्यान किया तो उन्होंने वानरों की एक बड़ी भारी भीड़ किले पर भेजी। इन वानरों ने ऐसा फसाद मचाया कि बादशाह घबरा उठा। उसने तुलसीदास जी (Tulsidas) को छोड़ दिया।
ये सब घटनाएं यही जाहिर करती हैं कि तुलसीदास जी को समय-समय पर अनेकों तकलीफों का सामना करना पड़ा, पर भगवान राम ने किसी न किसी तरह अपने भक्त की रक्षा की।
तुलसीदास जी ने हनुमान जी का खास-खास अवसरों पर बहुत गुणगान किया है। अपने ‘रामचरितमानस‘ को आरम्भ करते हुए उन्होंने लिखा है-
“करऊं कथा हरि-पद धरि सीसा।”
यहां हरि शब्द का अर्थ ‘बानर’ अर्थात हनुमान ही है। हनुमान जी का स्मरण करके ही उन्होंने भगवान राम की कथा शुरु की है। हनुमान जी के गुणगान में एक पुस्तक भी उन्होंने रची थी जिसका नाम है, हनुमानबाहुक’ ।
कहते हैं, भयंकर वातरोग से पीड़ित होकर तुलसीदास जी ने श्री हनुमानजी का स्मरण करते हुए इस पुस्तक को लिखा था और इस पुस्तक को रचते ही उनकी बांहों में हो रहा तेज़ दर्द गायब हो गया था।
वैसे यह तथ्य तो सर्वविदित है कि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हनुमान जी की सेवा में रचित अनेक रचनाओं जैसे हनुमान चालीसा , संकटमोचन हनुमान , हनुमान बाहुक आदि का पठन-श्रवण करने से अनगिनत लोगों को अध्यात्मिक लाभ प्राप्त हुआ है।
सम्पूर्ण भारत में हनुमान जी की जितनी भी अराधना होती है उनमें से श्री हनुमान जी को समर्पित अनेकों रचनाएँ वास्तव में तुलसीदास जी (Tulsidas)द्वारा ही लिखित हैं ।
“राम चरित मानस विमल ,संतन जीवन प्राण ।
हिन्दुवन को वेद्सम यवनहीं प्रकट कुरआन।। ”
–रहीम
रोचक तथ्य / Interesting Facts
- महात्मा बेनीमाधव दास द्वारा रचित मूल गोसाईं चरित को तुलसीदास जी के जीवन का सर्वाधिक प्रमाणिक वृतांत माना जाता है।
- कासगंज के सोरों के अलावा उत्तर प्रदेश का ही राजापुर ग्राम भी तुलसीदास जी का जन्मस्थल माना जाता है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी राजापुर को ही जन्म स्थान माना है ।
- तुलसीदास जी (Tulsidas) को कारागार में डालने का प्रयास करने वाला व्यक्ति अकबर था।
- जहाँगीर ने भी गोस्वामी तुलसीदास जी के दर्शन किये थे ।
- भक्तमाल ग्रन्थ के अध्ययन से हमें पता चलता है कि तुलसीदास जी (Tulsidas) अपने जीवनकाल में ही महर्षि वाल्मीकि का अवतार माने जाने लगे थे ।
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