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Tulsidas Hindi Kahani / तुलसीदास हिंदी कहानी (Chapter-1 / अध्याय-१)
October 27, 2022 | by storykars
अपनी बाल्य-स्मृति के आधार पर, जैसा बाबा Tulsidas का जीवन चरित हमनें पढ़ा और जैसा हमें याद रहा, वही हम यथासम्भव शोध के पश्चात् अपने पाठकों के लिए Hindi Kahani के रूप में लिखने का प्रयास कर रहे हैं । Hindi Kahani एक विधा है जिसके द्वारा विभिन्न तथ्यों, घटनाओं, लोगों, स्थानों को अपनी मातृभाषा में रोचक और सरल ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं । Storykars अपने पाठकों के लिए समय समय पर श्रेष्ठतम जानकारियाँ Hindi Kahani के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है । सुधी पाठकों से निवेदन है कि दृष्टिगत त्रुटियों के निराकरण हेतु निःसंकोच सुझाव दें, टिप्पणी करें, संपर्क करें ।
तुलसीदास जी का परिचय (Introduction of Tulsidas)
संत तुलसीदास का परिचय बहुत विस्तृत है। संत तुलसीदास जी की कहानी हर उस व्यक्ति के लिए प्रेरणा है जो अभावों , उपेक्षाओं से पीड़ित होकर जीवन से हार मान बैठा है।
जब बच्चे थे तब काल के क्रूर हाथों ने उनके मातापिता को उनसे छीना , माता के गर्भ में बारह माह व्यतीत करके, एक अशुभ मुहूर्त में मुंह में बत्तीस दांत लिए पैदा होने वाला बालक जिसके बारे में उसके बचपन से ही अनेक अमंगलकारी बातें लोगों में व्याप्त हो गयीं थी। इतनी विपरीत स्थितियों के बाद भी अपने पुरुषार्थ से अपना और अपने माता-पिता , गुरुजनों का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित करवाने वाले सपूत थे तुलसीदास ।
एक कवि के रूप में वे रामचरितमानस, विनयपत्रिका, हनुमानबाहुक, गीतावली, दोहावली, कवितावली, गौरीमंगल, जानकीमंगल, हनुमानचालीसा आदि असंख्य नामी –बेनामी रचनाओं के रचनाकार के रूप में जाने जाते हैं।लोकप्रियता की पराकाष्ठा यह है कि कलियुग में उन्हें महार्ष वाल्मीकि के पुनःअवतरित अवतार के रूप में पूजा जाता है।
एक संत के रूप में बाबा तुलसीदास जी का यश एक रामानंदी वैष्णव , प्रभु श्रीराम के परम भक्त, और अपने व्यक्तित्व व् कृतित्व से शैव तथा वैष्णव सम्प्रदाय के बीच सेतु बनाने वाले संत के रूप में अमर है ।
लेखनी (writing ) इतनी सुंदर कि उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियों को देखकर विद्वान् यह अनुमान लगाने को मजबूर हो जाते हैं की निश्चित ही उस समय भी कैलीग्राफी (calligraphy) का अस्तित्व रहा होगा।
और एक लोकोपकारी और समाज सुधारक जिसने तात्कालिक मुग़ल राज में क्षीण पड़ते हिन्दू शौर्य को राम कथामृत देकर न सिर्फ पुनः जीवन दिया बल्कि अक्षुण्ण कर दिया ।
तो आइये इस महापुरुष की जीवनकथा को सरसरी तौर पर जानने का प्रयास करते हैं ।
रामबोला दुबे (Childhood name of Tulsidas)
आज के कासगंज जिले के सोरों (जिसे प्राचीन काल में शूकरक्षेत्र कहा जाता था) में आत्माराम दुबे नाम के एक ब्राह्मण का परिवार रहता था जिसकी पत्नी का नाम हुलसी था । परिवार गरीबी में दिन गुजार रहा था लेकिन परिवार में भगवत-भक्ति का वास था । दोनों ही पति-पत्नी श्रीराम के भक्त थे ।
सम्वत: १५५४ के श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी के दिन अभुक्तमूल नक्षत्र में आत्माराम के घर एक बालक का जन्म हुआ । कहते हैं बालक का जन्म १२ माह तक गर्भ में रहने के बाद हुआ । बालक के जन्मते समय मुख में बत्तीसों दाँत मौजूद थे । बालक जन्म के समय रोया नहीं और उसके मुँह से राम निकला । इसी कारण इस बालक का नाम रामबोला रख दिया गया । यद्यपि प्रचलित मान्यताओं के अनुसार अभुक्तमूल नक्षत्र जन्म का एक शुभ नक्षत्र नहीं माना जाता फिर भी आत्माराम और पत्नी हुलसी दोनों ही पुत्र प्राप्त कर प्रसन्नता से खिल उठे ।
गंगा जी के तट पर सोरों में बाबा नर हरिदास का आश्रम था । बाबा नरहरिदास प्रसिद्ध वैष्णव संत और रामानंदी संप्रदाय के प्रणेता संत रामानंदाचार्य जी के प्रमुख शिष्यों में से एक थे ।
बाबा नरहरिदास स्वयं एक परम वैष्णव संत और सच्चे रामभक्त थे, चारों ओर उनका यश फैल रहा था । आत्माराम को जब भी समय मिलता सोरों बाबा के दर्शन करने हुलसी के साथ आते थे ।
एक बार वे बालक राम बोला के पाँच वर्ष पूरे होने के शुभ अवसर पर सोरों आये थे और बाबाजी के आश्रम में ही आकर रुके थे । दूसरे दिन बाबा नरहरिदास जी द्वारा राम कथा पर प्रवचन हुए । भक्तों की भीड़ उनके अमृत वचनों को मन लगाकर सुन रही थी और झूम रही थी । इस भीड़ में सबसे आगे बाबाजी के ठीक सामने एक पति-पत्नी बैठे थे ।
उनकी गोद में एक पांच वर्ष का सुन्दर बालक बैठा हुआ बाबा जी के मुख को बड़े ध्यान से देख रहा था। पता नहीं बाबा के मुख से निकले वचनों को वह कितना समझ पा रहा था, पर लग ऐसा रहा था कि जैसे वह उन वचनों के रस में सराबोर हो उठा हो ।
शायद बाबा की अधपकी दाढ़ी, ध्यान में डूबी उनकी अधखुली आंखें और उनका तेज-मय चेहरा उसे अपनी ओर खींच रहा था। शायद बाबा के स्वर में ऐसा जादू था कि अधिक कुछ न समझ पाते हुए भी वह बालक चकित होकर सुन रहा था । कथा सुनाते-सुनाते जब एक स्थान पर बाबा नरहरिदास रुके और ध्यान में डूबी उनकी भाव-विभोर अधखुली आंखें पूरी खुलीं, तो उनका ध्यान उस बालक की ओर गया ।
बालक के सुन्दर मुंह और उसके भाव को देखकर बाबा ने उससे बातचीत शुरु कर दी, क्यों बेटा,कथा अच्छी लगी?” बालक ने बहुत भोले भाव से ‘हां’ में सिर हिला दिया । उसके माता-पिता गदगद हो उठे । उन्होंने आगे बढ़कर स्वामीजी के चरणों को छुआ । उनके कहने पर बालक ने भी अपने नन्हें हाथों से बाबा के चरण छुए । बाबा ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दिया ।
यही बालक रामबोला, बड़ा होकर राम का महान भक्त और ‘रामचरितमानस का रचयिता महात्मा तुलसीदास (Tulsidas) बना ।
रामबोला से तुलसीदास (Rambola toTulsidas)
आरती आदि के बाद हुलसी और आत्माराम रामबोला के साथ अपनी कोठरी में लौट आये । हुलसी ने चपातियां सेकनी आरम्भ की और पिता-पुत्र बैठकर खाना तैयार होने का इन्तजार करने लगे । खाना खाकर तीनों सोरों के बाजार गए । वहां बालक के लिए कुछ खरीदना था और उसे घुमाना भी था । लौटकर तीनों फिर कीर्तन और पूजा-पाठ में शामिल हो गए ।
रात को पता नहीं क्या हुआ कि हुलसी और आत्माराम को बहुत तेज़ बुखार चढ़ आया । वे पीड़ा से बुरी तरह तड़पने लगे । बालक रामबोला थककर गहरी नींद सो रहा था । उन दोनों की कराह सुनकर बाबा के चेले आए। उन्होंने उनकी देख-भाल की । उनकी हालत खराब देखकर बाबा नरहरिदास भी कोठरी में पधारे। काफी इलाज किया गया, पर सुबह होते-होते दोनों ही स्वर्ग सिधार गए ।
बालक रामबोला की आंखें खुलीं । माता-पिता को बिना हिले- डुले पड़े देख और भीड़ को इकट्ठा पाकर वह घबरा उठा और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा । बाबा ने रामबोला को एक चेले के हाथ सोंपा और उन ब्राह्मण पति-पत्नि की दाह-क्रिया का इंतज़ाम कराया ।
रामबोला खूब रोया, पर किसी तरह उसे बहलाया गया । अब वह बेसहारा हो गया था । उसका अन्दर का मन भी समझ गया था कि बाबा नरहरिदास के सिवाय अब उसका कोई नहीं हैं । वह बाबा के चरणों में ही रहने लगा ।
बाबा को उस अनाथ बालक पर दया आई, उनके हृदय में ममता उमड़ उठी । उन्होंने तय किया कि वे इस बालक को पालेंगे और पढ़ाएगें-लिखाएंगे । उन्हें इस बालक के प्रति एक मोह-सा पैदा हो गया था । उसे वे अयोध्या अपने साथ ले गये और वहाँ सम्वत् १५६१ माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया ।
बिना सिखाये ही बालक ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पांच संस्कार करके राम बोला को राम मन्त्र की दीक्षा दी । रामबोला वहीं बाबा के पास रहने लगा । वहीं उसने पहला अक्षर-ज्ञान किया और धीरे-धारे शरीर से बड़ा होने के साथ-साथ विद्या सीखने में भी आगे बढ़ने लगा । बाबा नरहरिदास ने अपने नए चेले का नया नाम रखा-तुलसीदास (Tulsidas) ।
जब तुलसीदास (Tulsidas) किशोरावस्था तक पहुंचे तो बाबा जी ने ऊंची पढ़ाई के लिए उन्हें काशी भेज दिया । काशी में रहकर तुलसीदास (Tulsidas) ने वेदों और शास्त्रों की अच्छी पढ़ाई की । संस्कृत भाषा और व्याकरण का भी उन्होंने अच्छा ज्ञान हासिल किया । सोरों में रहते-रहते ही वे स्थानीय भाषा में कुछ कविता करने लगे थे ।
काशी में उन्होंने अपने इस रियाज को बढ़ाया। राम की भक्ति के कितने ही पद उन्होंने रचे । जिनको सुननेवालों ने बहुत पसन्द किया । तभी उनके मन में यह बात उठी कि क्यों न राम की कथा को जनता की भाषा में लिखा जाए । पर उस समय यह विचार, विचार ही बनकर रह गया। राम की कथा उस समय तक संस्कृत में ही लिखी जाती थी। उसका जन-भाषा में लिखा जाना पाप माना जाता था ।
शायद यह बात बाबा तुलसीदास (Tulsidas) को भी उस समय पता न होगी कि भविष्य में लोकभाषा में रामकथा लिखकर जनमानस में अलख जगाने का पुण्य कार्य विधाता ने उन्हीं के प्रारब्ध में लिख रखा है । फिर भी एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं” कहावत तुलसीदास जी के ऊपर पूरी तरह से चरितार्थ हो रही थी ।
तुलसीदास (Tulsidas) और रत्नावली का विवाह
काशी में कितने ही वर्ष रहकर और विद्या हासिल करके तुलसी (Tulsidas) अपने गुरु के पास सोरों लौट आए। वे उनके पास रहकर गुरु की सेवा में व्यस्त रहने लगे । यहीं पास के ही एक गांव के दीनबन्धु पाठक ने तुलसीदास (Tulsidas) को देखा । दीनबंधु पाठक वशिष्ठ गोत्रीय ब्राह्मण थे, जो कहा जाता है कि कासगंज जिले में स्थित बदरिया गाँव के निवासी थे और संयोग से अपनी विवाह योग्य कन्या के लिए उपयुक्त वर तलाश कर रहे थे ।
तुलसीदास (Tulsidas) उस समय इक्कीस-बाईस वर्ष के बहुत सुन्दर युवक थे । उनका रंग गोरा था और बदन गठा हुआ था । माथा ऊंचा और मुंह पर तेज था । पाठकजी ने देखते ही उन्हें पसन्द कर लिया । तुलसीदास की रची हुई कविताएं भी सुनी और जान लिया कि युवक होनहार है और कि अपनी बेटी रत्नावली का विवाह तुलसीदास के साथ कर दिया ।
रत्नावली बहुत ही सुन्दर थी । वे (Tulsidas) अपनी पत्नी को बहुत ही प्यार करने लगे थे और एक पल के लिए भी उसे अपनी आंखों से दूर करना उन्हें सहन नहीं होता था । तुलसीदास को कोई काम मिलता वे जैसे-तैसे उसे पूरा करते और सीधे घर पहुँच जाते । वहाँ वे रत्नावली को काम करते देखते, तो उससे बातें करते, उसके साथ भोजन करते और तरह-तरह की बातों में अपना समय बिताते ।
जब रत्नावली को पति के पास रहते रहते बहुत दिन बीत गए, तब एक दिन रत्नावली का बड़ा भाई उसे लिवाने आ पहुँचा । तुलसी के सिर पर जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा हो । उनका मन छोटा हो गया । उन्होंने रत्नावली के भाई की अच्छी आव-भगत की । पर जब उसने अपनी बहिन को ले जाने की बात छेड़ी तो तुलसीदास (Tulsidas) ने साफ इन्कार कर दिया ।
अब रत्नावली का भाई तुलसीदास (Tulsidas) के मामाओं के पास पहुँचा । मामाओं ने भी तुलसीदास को बहुत उँच-नीच समझाई । पर तुलसी आश्रम में पले थे, गृहस्थियों की उँच-नीच को वे नहीं समझते थे । मामाओं के सामने तो वे न बोले,पर अलग में अपने साले से उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि रत्नावली को किसी भी दशा में नहीं भेजेंगे । हारकर पत्नी का भाई लौट गया । तुलसीदास की जान में जान आई । वे फिर पहले की तरह हंसी-खुशी से रहने लगे ।
कुछ दिन बाद की बात है । वे अपने काम से घर लौटे तो रत्नावली को उन्होने घर में नहीं पाया । पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि रत्नावली का भाई आया था और उसे लिवा ले गया है । यह सुनते ही तुलसीदास (Tulsidas) को ऐसा लगा जैसे उनका खज़ाना लुट गया हो या उनके प्राण ही उड़ गये हों ।
रत्नावली से खाली उस घर में वे घुस नहीं सके और जैसे खड़े थे वैसे ही ससुराल के गांव की ओर चल पड़े । जिस समय वे चले उस समय शाम होने को थी । रास्ते में यमुना नदी पड़ती थी और बीस-पच्चीस कोस चलना भी था । पर तुलसीदास (Tulsidas) ने इन सब बातों का कोई विचार नहीं किया । वे इतने बेचैन हो उठे कि भूख-प्यास को भी भूल गए । सवारी का प्रबन्ध भी नहीं किया और लपक लिए ।
वे चल नहीं रहे थे । लगभग भागे जा रहे थे । वे शायद कुछ भी सोच नहीं रहे थे । उनके दिमाग में बस एक रत्नावली का चित्र था और यह दुख था कि वह उनसे बिना पूछे कैसे चली गई । पर वे रलावली को दोष नहीं दे पा रह थे । वे सोच रहे थे कि ज़रूर ही रत्नावली जाना नहीं चाहती होगी । उसका भाई ही उसे ज़बरदस्ती लिवा ले गया हैं ।
जब तुलसीदास यमुना के तट पर पहुँचे तब रात हो चुकी थी । पार कराने वाली आखिरी नाव किनारे को छोड़कर जा चुकी थी । बरसात का मौसम होने के कारण नदी चढ़ी हुई थी । नदी का पाट इतना चौड़ा था कि दूसरा छोर दीख नहीं पड़ता था । जल बड़ी तेज़ गति से बहा जा रहा था । मोटी-मोटी लहरें उठ रही थीं ।
पर तुलसीदास (Tulsidas) के सिर पर कुछ ऐसा भूत सवार था और रलावली से मिलने की ऐसी छटपटाहट उनमें थी कि उस समय वे सोचने और लाभ हानि को गिनने की स्थिति में नहीं थे । उन्होंने आव देखा न ताव उन्होंने जूते निकालकर कमरबन्द में खोंसे और नदी में कूद पड़े ।
वे (Tulsidas) तैरते जा रहे थे । पर पानी का बहाव इतना तेज था कि पूरे हाथ-पैर मारकर भी कुछ ही दूर आगे बढ़ पा रहे थे । तैरते तैरते जब वे नदी के बीच पहुँचे तो बहुत ही थक गए । यहां पानी बहुत गहरा था । पैर टिकाने का तो सवाल ही नहीं था । धार इतनी तेज़ थी कि वे शरीर को ढीला छोड़ नहीं सकते थे । उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए । किनारा अभी काफी दूर था ।
लाश का सहारा, धिक्कार और वैराग्य
तभी उन्होंने देखा कि एक लम्बी-सी चीज़ दूर से बहती चली आ रही है । उन्होंने सोचा, यह एक लम्बा तख्ता है, जिसका सहारा लिया जा सकता है । उसे थामने के लिए वे उसकी तरफ को सरके । जैसे ही लम्बी-चीज पास आई, तुलसीदास (Tulsidas) ने उस पर हाथ रखा, पर हाथ से छूते ही उन्होंने हाथ खींच लिया ।
यह लम्बी चीज तख्ता नहीं किसी व्यक्ति की लाश थी। हाथ हटते ही लाश आगे को सरकी। तभी तुलसीदास (Tulsidas) के दिमाग में विचार कौंधा कि यदि रत्नावली को पाना है तो यमुना को पार करना ही होगा । और यमुना को पार करना है तो इस लाश का सहारा लेना ही होगा । नहीं लिया तो मैं भी इस लाश की तरह ही लहरों के साथ बह जाऊँगा । और रत्नावली फिर कभी नहीं मिल सकेगी ।
दूसरे ही पल हाथ फैककर उन्होंने उस बहती लाश को पकड़ लिया और उसके ऊपर अपने-आपको टिकाकर धीमे-धीमे नदी पार करने लगे । नदी पार हो गई। लाश को उन्होंने छोड़ दिया । वह आगे बह गई और वे तट पर बैठकर सुस्ताने लगे । कुछ देर सुस्ताकर तुलसीदास (Tulsidas) फिर आगे बढ़े । रात बढ़ती जा रही थी । और उनकी ससुराल का गांव नज़दीक आता जा रहा था । जब उन्होंने गांव में पैर रखा, तब लगभग आधी रात बीत रही थी ।
वे ससुराल के द्वार पर पहँचे । उन्होंने द्वार को थपथपाया ।शायद दीनबन्धु पाठक अभी जाग ही रहे थे । आवाज़ सुनकर उन्होने दरवाज़ा खोल दिया । देखते ही पाठकजी सन्न रह गए । उनका जमाई बदहवास और बुरी हालत में सामने खड़ा था । तुलसीदास ने प्रणाम किया और बिना किसी संकोच के पूछा, क्या रत्नावली यहाँ आई है ?”
“हां!” दीनबन्धु बोले, “आप अन्दर चलिए ।”
दीनबन्धु तुलसीदास को अन्दर लिवा ले गए । पलभर में सारा घर जाग उठा । रत्नावली के आने की खुशी में सब लोग बहुत देर से तो सोए ही थे । घर में एक हलचल मच गई । बहनें और अन्य स्त्रियाँ रत्नावली को घेरकर प्यार से खिजाने लगीं । तुलसीदास (Tulsidas) के कपड़े बदलवाए गए । सास उनके लिए गरम-गरम दूध और मिठाई ले आई । वे खाते जाते थे और सबके चेहरे को देखते जाते थे । सबके मुँह पर दुत्कार का भाव था । मानों सब उसका मजाक उड़ा रहे हों ।
सहसा एक पछतावे का भाव उनमें पैदा हुआ । पर रत्नावली को देखने की ललक उनमें उतने ज़ोर की थी कि वे आगे-पीछे कुछ सोच नहीं सके । सास उनके मन के भाव को समझ रही थी । खिलाने-पिलाने के बाद उसने उन्हें रत्नावली से मिलने जाने दिया । जब तुलसीदास रलावली के कमरे में पहुंचे तो वह गुस्से से तनी बैठी थी । उसका मुँह लाल हो रहा था । बहनों और भाभियों ने उसे बहुत चिढ़ाया था और वह अपने पति पर बहुत खीजी हुई थी। तुलसीदास को देखते ही उसने कहा-
“लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ ।
धिक्-धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ ॥
अस्थि-चर्म-मय देह मम, तामें ऐसी प्रीति ।
तैसी जो श्री राम महं, होति न तौ भव-भीति ॥
आपको शर्म नहीं आई, जो पीछे-पीछे दौड़े चले ‘आए । ऐसा भी क्या प्रेम हो गया । मेरे इस हाड़ मांस के शरीर से आपको जितना प्रेम है, इतना प्रेम यदि श्रीराम के चरणों से होता तो मोक्ष न मिल जाता । पत्नी का एक-एक शब्द तुलसीदासके कानों में पड़ रहा था और अंदर गही में उतरता चला जा रहा था । जो पछतावे का भाव अभी-अभी हलका-सा उठकर दबा रह गया था अब उसके बोझ से वे (Tulsidas) दब गए ।
उन्हें अपनी सारी भाग-दौड़ इतनी बेकार लगी कि वे शर्म से पानी-पानी हो गए । उनकी आँखों के सामने से अज्ञान का पर्दा हट गया । रात के उस अंधेरे में भी अपने जीवन का रास्ता उन्हें साफ-साफ दीख उठा । उनका सारा शरीर कांपकर और झनझनाकर रह गया । रत्नावली दबे-दबे सिसकियां ले रही थी । और वे (Tulsidas) मानो उड़कर किसी और लोक में पहुँच गये थे ।
अचानक उनकी आंखों के सामने गहनों से लदी परम सुन्दरी रत्नावली प्रकट हुई और तभी वह सोने की शक्ल हड्डियों के एक भयानक ढांचे में बदल गई । पता नहीं कितनी देर तुलसीदास इस तरह खोए बैठे रहे और रत्नावली सिसकतीं रहीं । तब उनके मन में एक निश्चय जगा और वे पलंग से उठ खड़े हुए । रत्नावली ने सिर उठाकर देखा तो वे दरवाजे तक जा चुके थे ।
“कहां जा रहे हो ? रत्नावली ने पूछा ।”
“उसी राम के चरणों में जिससे प्रेम करने का उपदेश अभी-अभी तुमने मुझे दिया है ।” तुलसीदास बोले ।
रत्नावली ने समझा कि पति सिर्फ मान कर रहे हैं । वे बुरा मान गए हैं । उसने आगे बढ़कर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा, “मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी ।”
“अब तुम मुझे नहीं रोक सकोगी । मेरी गृहस्थी आज पूरी हुई । कहकर तुलसीदास ने कमरे का द्वार खोला और बाहर निकल आए । घर के लोग अपने-अपने बिस्तरों पर लेट चुके थे । तुलसीदास दबे पांव मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़े और उसे खोल कर बाहर निकल गये ।
रत्नावली कुछ देर तो खड़ी सोचती रही । फिर वह भी खाट पर लेट गई। उसने सोचा कि पति नाराज भी कब तक रहेंगे । कल-परसों में आकर खुद ही मझे लिवा ले जाएंगे ।
“हमारा देश निराशा के गहन अन्धकार में साधक, साहित्यकारों से ही आलोक पाता रहा है। जब तलवारों का पानी उतर गया, शंखों का घोष विलीन हो गया, तब भी तुलसी के कमंडल का पानी नहीं सूखा … आज भी जो समाज हमारे सामने है वह तुलसीदास का निर्माण है। हम पौराणिक राम को नहीं जानते, तुलसीदास के राम को जानते हैं।” – महादेवी वर्मा
FAQs/ हमने क्या सीखा ?
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) का जन्म कब हुआ था ?
Ans.तुलसीदास जी का जन्म सम्वत१५५४ के श्रावण मास के शुक्ल पक्ष में सप्तमी के दिन हुआ था.
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) का जन्म कौन से विशेष नक्षत्र में हुआ था ?
Ans.अभुक्तमूल नक्षत्र में.
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) का जन्म किस स्थान पर हुआ था ?
Ans.सोरों (जनपद कासगंज, उत्तर प्रदेश)
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) के माता-पिता का क्या नाम था ?
Ans.तुलसीदासजी के पिताजी का नाम श्री आत्माराम दुबे और माताजी का नाम श्रीमती हुलसी था.
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) के बचपन का क्या नाम था ?
Ans.तुलसीदास जी (Tulsidas) के बचपन का नाम रामबोला दुबे था.
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) के मातापिता की मृत्यु के समय उनकी उम्र कितनी थी ?
Ans.लगभग पांच वर्ष
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) के गुरु कौन थे ?
Ans.बाबा नरहरिदास
Ques. बाबा नरहरिदास जी के गुरु कौन थे ?
Ans.प्रसिद्ध वैष्णव संत और रामानंदी सम्प्रदाय के संस्थापक संत रामानंदाचार्य जी बाबा नरहरिदास जी के गुरु थे.
Ques. तुलसीदास जी (Tulsidas) की शिक्षा कहाँ हुयी ?
Ans.तुलसीदास जी की प्रारम्भिक शिक्षा सोरों, अयोध्या व आगे की शिक्षा वाराणसी (काशी) में हुयी.