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कौन सा बेटा सेठ जी की वसीयत के हिसाब से व्यापर का उत्तराधिकारी बनेगा ?

उज्जयिनी में उन दिनों राजा विक्रमादित्य का शासन था । कवि कालिदास उनके राजकवि थे । वहीं एक नगरसेठ रहते थे। सेठ जितने धनवान थे, उतने ही गुणी भी । वह हमेशा दीन-दुखियों की मदद करने में आगे रहते थे।

सेठ के दो पुत्र थे । बड़ा बेटा सेठ की ही तरह उदार था और छोटा भी किसी बात में कम नहीं था । दोनों पढ़-लिखकर बड़े हुए । बड़े भाई ने पढ़ाई बंद कर दी पर छोटा भाई आगे पढ़ने के लिए काशी चला गया । सेठ ने बड़े बेटे को अपने कारोबार में लगाना चाहा । वह कोई काम-काज नहीं करता था । दिन भर मित्रों के साथ गप मारता, खाता-पीता और मौज मनाता ।

सेठ को दिन-रात चिंता लगी रहती कि मेरे बाद व्यापार कौन देखेगा ? अब तो वह वृद्ध हो चले थे । सेठ ने छोटे बेटे को पत्र लिखा-‘बेटा, अब मैं वृद्ध हो गया हूं । मुझसे व्यापार का काम-काज नहीं हो पा रहा है । तुम्हारे बड़े भाई को तो व्यापार-धंधे की तरफ देखने की फुरसत ही नहीं है । अब तुम चले आओ और अपना काम-काज संभाल लो।’

छोटे भाई ने उत्तर दिया-‘पिता जी, यह मेरी पढ़ाई का अंतिम वर्ष है। पढ़ाई पूरी होते ही चला आऊंगा, तब तक आप किसी तरह कारोबार देखते रहें ।’

कुछ समय इसी तरह और बीत गया। सेठ एकाएक बीमार पड़ गए । उनकी बीमारी बढ़ती गई। उन्होंने पत्र भेजकर छोटे बेटे को बुलवाया।

पिता की बीमारी का समाचार पाकर छोटा बेटा रुका नहीं । वह तुरंत घर लौट आया । उधर सेठ ने मन ही मन सोचा-‘छोटे बेटे के आने से पहले ही मेरे प्राण निकल गए, तो मैं बेटे को जो कहना चाहता है, वह नहीं कह पाऊंगा।’ यह सोचकर सेठ ने एक ताड़पत्र पर कुछ लिखा और उसे एक बक्से में रखकर बंद कर दिया । सबसे कह दिया कि मेरी मृत्यु के बाद इस बक्से को खोलना । इसमें मेरी वसीयत है ।

छोटा बेटा घर आया । लेकिन तब तक सेठ जी की जुबान पर लकवे का असर हो गया था । वह बोल नहीं पा रहे थे। बेटे को आया देखकर उनका चेहरा खिल उठा ।

सेठ ने इशारे से वह बक्सा लाने को कहा । सेठ ने उसमें रखी वसीयत पढ़ने के लिए छोटे बेटे को इशारा किया । कागज पर दो पंक्तियां लिखी थीं।

अभी दोनों भाई वसीयत पढ़ ही रहे थे कि एकाएक सेठ जी ने अंतिम हिचकी ली और उनके प्राण-पखेरू उड़ गए । दोनों भाइयों ने वह कागज उसी तरह बक्से में रख दिया और पिता के अंतिम संस्कार की तैयारी में लग गए।

सेठ की मृत्यु को कुछ समय बीत गया । उनका सारा व्यापार अब उनके दोनों बेटों के हाथ में था । दोनों कुछ समय तो मिलकर व्यापार का काम-काज देखते रहे। लेकिन फिर दोनों के विचारों में अंतर आता गया । एक दिन दोनों भाइयों में किसी बात पर झगड़ा हो गया।

छोटे ने कहा- “हम भले अलग-अलग रहें, लेकिन व्यापार साझे में ही चलने दें। हानि-लाभ बराबर-बराबर बांट लेंगे।”

बड़े भाई ने कहा-‘नहीं, पिता जी कह गए हैं कि बंटवारा कर लेना।”

इस तरह झगड़ा बढ़ गया। नगर के पांच व्यापारियों को पंच बनाया गया । उन लोगों ने कहा-“सेठ जी ने जैसा लिखा है, वैसा ही करो ।’

वसीयत में लिखा था –

‘पढ़े-लिखे को भार और काम,

अनपढ़ को – धन और आराम ।’

इस वसीयत ने एक समस्या खड़ी कर दी । दोनों भाई अपनी-अपनी तरह से इसका अर्थ लगाते थे। दोनों इसका सही अर्थ समझने में असफल रहे । बड़े भाई ने कहा- “इसका अर्थ साफ है । मैं कम पढ़ा हूं । छोटा भाई अधिक पढ़ा है । वसीयत में लिखा है-‘अनपढ़ को धन और आराम’ यानी मुझे ही सेठ बनाना । व्यापार मुझे सौंपने को लिखा है । छोटा अधिक पढ़ा है तो कहीं भी काम कर लेगा और अपना भार उठा लेगा।”

छोटे भाई ने कहा- “पिता जी ने मुझे पत्र लिखा था और सारा व्यापार संभाल लेने की बात कही थी। बड़े भाई के लिए तो लिखा था कि उसे तो व्यापार-धंधे में कोई रुचि ही नहीं है।’

बड़ा भाई उसकी बात मानने को तैयार नहीं हुआ । उसने कहा-“सारा व्यापार मुझे सौंप दो।”

बात बढ़ गई । समझौता हुआ नहीं। अंत में राजा विक्रमादित्य के दरबार में मामला न्याय के लिए प्रस्तुत हुआ । राजा ने वसीयत पढ़ी । उसमें दो पंक्तियां लिखी थीं । राजा विक्रमादित्य ने चारों तरफ देखा । उन्हें कवि कालिदास कहीं नहीं दिखाई दिए । वही इसका सही अर्थ निकाल सकते थे ।

राजा ने मंत्री को भेजकर तुरंत कालिदास को दरबार में बुलवाया । मंत्री कालिदास के निवास पर पहुंचा । कवि आराम कर रहे थे । मंत्री को आया देखकर उन्होंने पूछा- “मंत्री जी, क्या काम आ पड़ा?”

“नगरसेठ के दो बेटों के झगड़े का न्याय करना है। नगरसेठ की वसीयत का अर्थ स्पष्ट नहीं है । उसका सही अर्थ मालूम करना है।” -मंत्री ने कहा।

“ठीक है । कपड़े पहन लूँ, फिर चलता हूँ।” -कालिदास बोले ।

कवि ने कपड़े बदले । सिर पर अपनी दरबारी पगड़ी रखी और रथ पर सवार होकर पहंचे दरबार में । राजा को अभिवादन किया और अपने स्थान पर बैठ गए ।

अब राजा ने उन दोनों भाइयों के झगड़े तथा नगर सेठ की वसीयत की सारी बातें कवि कालिदास को बतला दीं। कवि ने सारी बातें सुन ली और वसीयत भी देख ली।

कुछ देर विचार करने के बाद कहा-“नगरसेठ ने लिखा है कि जो पढ़ा-लिखा है उसे भार और काम देना । अतः पढ़े-लिखे को ही व्यापार का भार सौंपना और उसे ही व्यापार करने देना । अनपढ़ को धन देने का अर्थ है कि खर्च के लिए उसे धन देते रहना। आराम देने का अर्थ है-उसे व्यापार का काम न देना । वह व्यापार चौपट कर देगा। छोटा लड़का अधिक पढ़ा-लिखा है, इसलिए वह व्यापार का काम ठीक से कर सकेगा।”

कालिदास की यह बात सुनकर सभी लोग दंग रह गए । दोनों भाइयों को राजा विक्रमादित्य का यह न्याय मान लेना पड़ा।

(साभार गोपालदास नागर)