Namdev-Chapter 2 Final Chapter/संत नामदेव – अध्याय २ अंतिम अध्याय
October 28, 2022 | by storykars

हरि नांव हीरा हरि नांव हीरा । हरि नांव लेत मिटै सब पीरा ॥टेक॥
हरि नांव जाती हरि नांव पांती । हरि नांव सकल जीवन मैं क्रांती ॥1॥
हरि नांव सकल सुषन की रासी । हरि नांव काटै जम की पासी ॥2॥
हरि नांव सकल भुवन ततसारा । हरि नांव नामदेव उतरे पारा ॥3॥
रांम सो नामा नाम सो रांमा । तुम साहिब मैं सेवग स्वामां ॥टेक॥
हरि सरवर जन तरंग कहावै । सेवग हरि तजि कहुं कत जावे ॥1॥
हरि तरवर जन पंषी छाया । सेवग हरिभजि आप गवाया ॥2॥
नामा कहै मैं नरहरि पाया । राम रमे रमि राम समाया ॥3॥
गतांक( संत नामदेव – अध्याय १ / Namdev-Chapter 1) से आगे …
नागनाथ की घटना Namdev at Nagnath temple
नामदेव (Namdev) के अनुयायियों ने संत नामदेव के संबंध में अनेक कथाएं बताई हैं । इन सब कथाओं में उनकी अविचल भक्ति, उनकी विनम्रता, जाति या वर्ग का भेदभाव किये बिना सभी को समान मानकर उनके प्रति उनका उदार और पक्षपातरहित व्यवहार अभिव्यक्त होता है, उनका व्यक्तित्व और उनके अनेक गुण ऐसे हैं जो अत्यंत महत्त्व रखते हैं।
नागनाथ की घटना भी जनता में बहुत चर्चित है । नागनाथ बारह ज्योतिलिंगों में से एक है । वह दूसरा कैलास भी कहलाता है। ज्ञानदेव-नामदेव (Namdev)जिस दिन वहां पहुंचे, उस दिन महाशिवरात्रि थी। वहां पहुंचने पर दोनों को असीम आनंद हुआ। स्नान-संध्या कर दोनों मंदिर के मुख्य द्वार पर गए। भगवान शिवशंकर का मनःपूर्वक पूजन-अर्चन किया, प्रणिपात कर अगाध भक्तिभाव से उनके दर्शन किये।
पण्डितों की आपत्ति
नामदेव (Namdev) तन्मय हो भजन गाने लगे। उनके “भजन सुनने के लिये भक्तजनों की भीड लग गई। संपूर्ण वातावरण भक्ति-रस से भर गया।भगवान शिवशंकर की नित्य पूजा का समय हुआ तो मंदिर के पुजारी वहां आ पहुंचे । वे ब्राह्मण थे। भारी भीड में से रास्ता निकालकर पूजा के लिए जाना असंभव देख, वे खीझ गए। चिल्लाने लगे, “ हट जाओ ! हमें रास्ता दो !!”
पुजारियों ने देखा कि इतना चिल्लाने पर भी उनकी बात की ओर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। इससे वे और भी अधिक क्रुद्ध हो गए। उन्होंने नामदेव से(Namdev) कहा, “तुम अपने भजन पंढरपुर में गाओ। यहां नागनाथ हैं। उनके सामने नाच-गाना नहीं चलेगा। कैलासपति उमानाथ शिव तुम्हारे इन भजनों से प्रसन्न नहीं होंगे । पंढरपुर जाओ और वहां लाज-लज्जा छोडकर चाहे जैसा नाचो-गाओ।”
पुजारियों के उक्त शब्दों से कुछ श्रोता भक्तों को गुस्सा आ गया। पुजारियों से उलझते हुए उन्होंने पूछा, “ महान् ऋषि-मुनियों ने कहा है कि हरि और हर में कोई भेद नहीं है । ऐसा कहां लिखा है कि भगवान शिव के सामने भजन न गाए जाए ?”
लोगों को मुंह लडाते देख, पुजारियों के क्रोध का ठिकाना न रहा। वे चीख कर बोले, “भावुक मूर्ख ! तुम हमें सिखानेवाले कौन होते हो? तुम सबके सब निकल जाओ यहां से ! नहीं निकलोगे तो धक्के मारकर निकाले जाओगे !!”
पुजारियों के क्रोधपूर्ण शब्दों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ। अपने स्थान से कोई टस से मस तक नहीं हुआ।
नामदेव का अपमान
पुजारियों के लिए यह अति हो गई। अतः दो पुजारी भीड को धक्के देते हुए संत नामदेव (Namdev)के पास पहुंचे और क्रोध से आगबबूला होकर कहने लगे, “तुम्हारे भजनों के कारण रास्ता बंद हो गया है, लोग बाहर खडे पूजा के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। यदि तुम्हारी इच्छा ही है तो मंदिर के पिछवाडे में जाओ और जितनी देर मर्जी हो हरि-भजन करते रहो।”
संत नामदेव (Namdev)शांत थे। उन्हें कोई क्रोध नहीं हुआ। उन्होंने नम्रता के साथ पुजारियों को प्रणाम किया और मंदिर के पिछवाडे में चले गए। वहां वे भजन करते रहे किंतू भक्त श्रोताओं को बहुत दुख हुआ। लोगों को दुखी देख संत नामदेव से नहीं रहा गया । उनकी आंखों में आंसू आ गए। गला रुंध गया । वे विचार करने लगे, ईश्वर के समक्ष यह पवित्रता-अपवित्रता का झगडा क्यों? कुछ लोगों को दूर खडे रहने के लिए क्यों कहा जाता है ? क्या क्रोध, दुष्टतापूर्ण आचरण अपने आप में अपवित्रता नहीं है ?
और मंदिर घूम गया
मंदिर के पिछवाडे में जाकर भजन गाने के लिए बाध्य किये जाने से उन्हें भगवान शिवशंकर का आमने-सामने दर्शन नहीं हो पा रहा था। इससे वे बहुत दुखी थे। उन्होंने आर्त स्वर में पांडुरंग को पुकारा और क्या आश्चर्य ! क्षणार्ध में पूर्वाभिमुखी मंदिर का मुख घूमकर संत नामदेव (Namdev)की ओर हो गया। वहां उपस्थित भक्त समुदाय यह दृश्य देख अवाक रह गया। असीम हर्ष के साथ सभी बोल उठे, “ भगवान शिवशंकर संत नामदेव (Namdev)पर प्रसन्न हो गए हैं।”
जिस समय पुजारियों की नित्य पूजा पूर्ण हुई, भजन पूरी तन्मयता से चल रहा था। पूजा पूर्ण कर पुजारी बाहर आए तो भजन मंदिर के सामने होते देख कर वे अचंभे में पड़ गए। पूछताछ की तो लोगों ने बताया कि मंदिर ने अपनी दिशा बदलकर नामदेव (Namdev)की ओर कर ली है।
पुजारी कांप उठे । उनके पैर लडखडाने लगे। पूर्वकृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा। वे नामदेव (Namdev)के भजन सुनने के लिए बैठ गए और भजन पूर्ण होते ही नामदेव के पास पहुंचे। उनसे क्षमायाचना की और कहने लगे, “हमारी मूर्खता के लिए हमें क्षमा कर दीजिये।”
संत नामदेव (Namdev)के हृदय में न घृणा थी, न क्रोध । उनका चित्त सदा की भांति प्रसन्न और निर्मल था। बडी मृदुता के साथ उन्होंने पुजारिया की सान्त्वना की और उन्हें वापस भेजा।
कहा जाता है, मंदिर आज भी उसी बदली हुई दिशा में ही खडा है और कोई भी जाकर इस तथ्य की जांच-पडताल कर सकता है।
नागनाथ दर्शन के बाद
नागनाथ-दर्शन के बाद दोनों संतश्रेष्ठ सीधे पंढरपुर लौटे। संत नामदेव विट्ठल-दर्शन का आनंद रोक नहीं सके। उन्होंने अपनी सुध खो दी। पांडुरंग से एकरूप हो गए। संत नामदेव (Namdev)की इस अवस्था में संत ज्ञानदेव ने उनकी मनः पूर्वक सुश्रूषा की।
चेतना लौटते ही नामदेव ने भगवान विट्ठल को जैसे ही प्रणिपात किया, विट्ठल अपनी ईंट छोड नीचे उतर आए और भक्त को अपने अंक में ले लिया। कहते हैं, प्रसन्न होकर विट्ठल ने अपने गले की तुलसी माला संत नामदेव (Namdev)के गले में डाल दी।
इस अवसर पर निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, विसोबा, गोरा कुम्हार आदि सभी संत वहां उपस्थित थे। सभी ने बडे प्रेम से नामदेव (Namdev)को गले लगाया।
कच्ची हांड़ी Namdev with fellow saints.
संतों का जीवन और उनका प्रत्येक कर्म व् प्रत्येक क्षण भगवान् को समर्पित होता है। यही नहीं संतों का हास्यविनोद भी साधारण न होकर उर्ध्व गति गामी होता है। तो एक बार की बात है।गोरा कुम्हार ने सभी संतों को अपने घर आमंत्रित करते, कहा, “आप सबकी चरणरज से मेरी कुटिया को पवित्र हो जाने दीजिये।”
निमंत्रण स्वीकार कर सभी संत गोरा कुम्हार के घर गए। गोरा कुम्हार ने बडी प्रसन्नता में प्रेम से सभी का आगत-स्वागत किया।
संतों का आपस में हास्यविनोद होने लगा। संत ज्ञानदेव ने गोरा कुम्हार से कहा, “ गोरा ! क्या तुम बता सकते हो, इन हांडियों में से कौन सी पूरी तरह पक चुकी हैं, कौन अभी पकी नहीं हैं, कौन सी कच्ची है ?”
कौन सी हांडी कच्ची ?
प्रश्न का अर्थ समझने में गोरा को देर नहीं लगी। वे समझ गए कि ज्ञानदेव का इशारा उसके यहां बैठी संत मंडली की ओर है। वे कुछ बोले नहीं। वे मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते थे सो भीतर गए और मिट्टी को बर्तनों का आकार देने की पटिया उठा लाए और एकएक संत के सिर पर पटिये से ठोकना आरंभ कर दिया। किसी ने न कोई आपत्ति की और न ही प्रतिक्रिया व्यक्त की। किंतु उन्होंने ज्योंही संत नामदेव (Namdev)के सिर पर पटिये से ठोका, नामदेव कह उठे, “मेरे सिर पर पटिया क्यों मार रहे हो?”
नामदेव का इतना कहना था कि गोरा संत ज्ञानदेव की ओर मुडे और बोले, “ यह हंडी (नामदेव Namdev) अभी आग में पकी नहीं है।” ।
मुक्ताबाई बोली, “गोरा, तुम अनुभवी कुम्हार हो। तुमने बिलकुल ठीक परखा है।”
इस पर संत मंडली में हंसी फूट पडी। किंतु बात नामदेव (Namdev)को चुभ गई। उन्होंने इस घटना का यही अर्थ लिया कि, उनकी आत्मा को अभी परिपक्व नहीं माना गया है। यह सोचकर उन्हें बडी चोट पहुंची कि उन्हें संतों की पंक्ति में बैठने योग्य न मानकर उनका उपहास किया गया।
गुरु बनाने की प्रेरणा
नामदेव (Namdev) गोरा के यहां से उठे और सीधे मंदिर गए। विट्ठल के सामने पालथी मारकर बैठ गए।
कहा जाता है, नामदेव (Namdev)को निराश, हतोत्साहित देख सखा पांडुरंग उन्हें उत्साहित करने लगे। इस पर नामदेव ने शिकायत भरे स्वर में कहा, “प्रभु ! गोरा के घर पर मुझे अपमानित किया गया।”
पांडुरंग उन्हें समझाते हुए बोले, ” गोरा ने ठीक ही परखा हैं। जबतक सद्गुरु के चरणों में अपने आपको समर्पित न किया जाए, परिपक्वता नहीं आती।”
नामदेव के लिए यह असह्य था। उन्होंने अपना आपा खो दिया और बोले, “मैं तुम्हारे पास इस आशा से आया कि तुम मेरा दुख दूर करोगे किन्तु तुम भी ठीक वही बातें कह रहे हो, जो उन्होंने कहीं। अब मैं कहां जाऊं?”
” कहां जाओगे, पूछते हो? सद्गुरु के पास जाओ। उसे अपना सभी कुछ समर्पित कर दो। तब तुम देखोगे कि तुम्हारे भीतर के अपने परायेपन का भेद चला गया है।”
सखा पांडुरंग की सलाह नामदेव (Namdev)को रुचि नहीं। आर्त स्वर में वे कहने लगे, “प्रभु ! मेरे लिए सद्गुरु की आवश्यकता क्यों है ? क्या मेरे लिए तुम पर्याप्त नहीं हो?”
पुनः समझाते हुए पांडुरंग कहने लगे “देखो, नामदेव ! मैंने जब राम का अवतार ग्रहण किया था, महर्षि वसिष्ठ को मैंने अपने के रूप में स्वीकार किया था। मैं उनके सामने प्रणत हुआ इसलिए उनसे मुझे आध्यात्मिक ज्ञानप्राप्ति हुई। श्रीकृष्णावतार के समय सांदीपनी ऋषि से अनुनय कर मैंने उन्हें इस बात के लिए राजी किया था, वे मुझे अपना शिष्य बनाएं। इसलिए तुम यदि मेरी बात मानो और उसके अनुसार चलो तो सभी संत-सद्गुरु तुम्हारा आदर करेंगे।”
इस पर नम्र होकर संत नामदेव (Namdev)ने पूछा, ” ऐसा कौन है जिसके पास जाकर मैं अपने आपको समर्पित करूं?”
” मल्लिकार्जुन मंदिर में इस समय एक व्यक्ति लेटा हुआ है, उसका नाम विसोबा है। वह महान् ज्ञानी है। उसके पास जाओ और तुम्हारा गुरु बनने के लिए उसे राजी करो।”
नामदेव (Namdev) फूट पडे। उनकी आंखों में आंसुआ की धारा लग गई। आर्त स्वर में कहने लगे, हे मेरे स्वामी ! मैं तुम्हें एक पल के लिए भी नहीं छोड़ सकता !”
पांडुरंग नामदेव (Namdev) की आर्तता से द्रवित नहीं हुए। कुछ कठोरता लाकर उन्होंने कहा, ” तुम्हें गुरु की शरण में जाना ही होगा। दूसरा कोई मार्ग नहीं है।”
नामदेव (Namdev)समझ गए। वे उठे, पांडुरंग को प्रणिपात किया और निकल पडे मल्लिकार्जुन मंदिर की ओर।
विसोबा गुरु Namdev’s Guru
नामदेव (Namdev)मल्लिकार्जुन मंदिर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि विसोबा सांब शिवलिंग पर पैर टिकाए लेटे पडे हैं। नामदेव को बडा सदमा पहुंचा। बहुत बुरा लगा। वे विसोबा के पास गए और बोले, “मैंने सुना है आप महान् संत हैं। किंतु यहां आप भगवान् शिवशंकर पर ही पैर टिकाए सो रहे हैं। क्या यह उचित है ?” विसोबा किसी तर्क में नहीं उलझे, बोले, ” सत्य ही कहते हो, यह अनुचित है। किन्तु मैं बहुत दुर्बल हूं। उठ नहीं सकता। क्या तुम मेरा एक काम सकते हो ?”
नामदेव प्रश्नसूचक दृष्टि से देखने तो विसोबा ने आगे कहा, “ एक काम करो, मेरे पैर उठाकर ऐसे स्थान पर रख दो, जहां शंकर न हों।”
नामदेव ने विसोबा के पैर पकडे और उन्हें उठाकर शिवलिंग से दूर रख दिया।
सबकुछ शिवमय
यह क्या ? पैर रखते ही उसके नीचे शिवलिंग कहां से आ गया? नामदेव आश्चर्य में पड गए। भयभीत भी हुए।उन्होंने पैर उठाए और पुनः दूसरी ओर रखे तो वहां भी पैरों के नीचे शिवलिंग उभर आया। इस भांति नामदेव विसोबा के पैर उठाकर जहां कहीं रखते, पैरों के नीचे शिवलिंग उत्पन्न हो जाता।
अन्त में नामदेव को अनुभूति हुई कि शिव सर्वत्र है। प्रत्येक वस्तु शिव है। इस अनुभूति से उनका अहंकार नष्ट हो गया। उन्होंने अनुभव किया, ‘मैं भी शिव ही हूं।’
कहते हैं उपरोक्त घटना से संत नामदेव को अपने गुरु विसोबा की महानता का ज्ञान हुआ।
भक्त नामदेव और सखा पांडुरंग की पारस्परिक सन्निकटता दर्शानेवाली एक और कथा है।
एक बार नित्य के अनुसार नामदेव को आलिंगन देने के बाद सखा पांडुरंग कहने लगे, ” नामदेव ! जब से तुम्हें गुरु प्राप्त हुआ है, धीरे-धीरे तुम मुझे भूलते जा रहे हो।”
विनीत हो नामदेव (Namdev) बोले, “ अद्वैत-भावना से मुझे मुक्ति मिल गई है। अब मैं आपमें और मेरे सद्गुरु में कोई भेद नहीं देखता।”
कहा जाता है कि इसी प्रसंग के बाद सखा पांडुरंग ने अन्य संतों को बताया कि, अब हंडिया पूरी तरह पक चुकी है।
एक दिन पांडुरंग नामदेव (Namdev)से पूछने लगे, “क्या तुम्हें सदैव इस बात का ज्ञान रहता है कि संपूर्ण सृष्टि मुझसे भरी हुई है ?”
नामदेव का उत्तर था, “संपूर्ण जीवसर को मैं इसी प्रकाश में देखता हूं।”
नामदेव कहा करते, “सद्गुरु विसोबा ने मुझे जो कुछ सिखाया, उसी से मुझमें यह वृत्ति आयी।”
अनूठी परीक्षा
कार्तिक महीने की बात है। एकादशी का दिन था। संत नामदेव को उपवास था। एक भिखारी उनके पास पहुंच गया। भोजन मांगने लगा। संत नामदेव बोले, “तुम जानते हो, आज एकादशी है। उपवास का दिन है। अन्य दिनों की भांति आज मैं तुम्हें भोजन नहीं दे सकता। चाहो तो कुछ फल लाकर जरूर दे सकता हूं।”
भिखारी बोला, “तुम मुझे भोजन नहीं दोगे तो मैं भूख से मर जाऊंगा। ब्रह्महत्या का पातक तुम पर होगा।”
इसपर नामदेव बोले, “पाप या सत्कर्म के पुण्य के विषय में मुझे कोई ज्ञान नहीं है।
” लगता है तुममें जरा मी सदयता नहीं है, फिर भी तुम अपने खोखले शब्दों से कहते हो कि तुम तत्त्वज्ञानी हो। क्या तुम इस बूढे को भूख से मर जाने दोगे ?” -भूखे ब्राह्मण ने सवाल किया।
नामदेव ने उत्तर दिया, “अन्न न मिलने के कारण तुम्हारा यदि आज प्राणांत हो जायगा तो मैं भी वही गति स्वीकार करने के लिये तैयार हूं…” संत नामदेव अपनी बात पूरी कर ही पाए थे कि ब्राह्मण आंखें फेरने लगा। वह गिर पडा और क्षणार्ध में ही उसके प्राणपखेरू उड गए। संत नामदेव तत्काल उठे। उन्होंने शव उठाया और सीधे भीमा नदी के तट पर पहुंच गए। वहां उन्होंने चिता रची। उस पर ब्राह्मण का शव रखा। शव के बगल में स्वयं लेट गए और चिता को अग्नि दे दी। संत नामदेव की पत्नी राजाई ने भी पति के साथ सती जाने की तैयारी की।
उसी क्षण भगवान पांडुरंग अपने दैदिप्यमान एव पावन चतुर्भज रूप में प्रकट हुए। सभी की रक्षा की और शुभाशीष दिया।
नामदेव उत्तर भारत में Namdev in Northern India
संत नामदेव के सभी समकालीन संत एकएक कर जब इहलोकलीला पूर्ण कर स्वर्ग सिधार गए, तो संत नामदेव उत्तर भारत चले गए । महाराष्ट्र में रहते हुए ईश्वर की महिमा का गान करने के लिए उन्होंने जिस तरह से मराठी में अभंग लिखे उसी प्रकार उत्तर भारत में रहते हुए उन्होंने हिन्दी में भी अभंग रचे । जैसे –
रांम रमे रमि रांम संभारै । मैं बलि ताकी छिन न बिचारै ॥टेक॥
रांम रमे रमि दीजै तारी । वैकुंठनाथ मिलै बनवारी ॥1॥
रांम रमे रमि दीजै हेरी । लाज न कीजै पसुवां केरी ॥2॥
सरीर सभागा सो मोहि भावै । पारब्रह्म का जे गुन गावै ॥3॥
सरीर धरे की इहै बडाई । नांमदेव राम न बीसरि जाई ॥4॥
संपूर्ण हृदय से ईश्वर के प्रति अनुरक्त होना, अपना सब कुछ उसके प्रति समर्पित करना उसमें पूर्ण श्रद्धा रख कर शुद्ध जीवन व्यतीत करना, भक्ति मार्ग कहलाता है। दक्षिण भारत में सदियों पूर्व से भक्ति की परंपरा स्थापित थी । संत नामदेव जब उत्तर भारत में जा बसे तो वहां भी इसी प्रकार की परंपरा आरंभ हो गई।
अंतिम समय
कहते हैं कि साथी संत मण्डली में भी संत ज्ञानेश्वर संत नामदेव को अत्यंत प्रिय थे। उनके देहावसान के बाद संत नामदेव ने परिव्राजक सी वृत्ति अपना ली । वे भारत में अनेक स्थानों में भ्रमण करते रहे लेकिन वर्तमान पंजाब के गुरदासपुर के घुमान नामक स्थान में उन्होंने विशेष रूप से प्रवास किया ।
पंजाब में संत नामदेव के प्रवास का असर यह हुआ की उनकी वाणी और विशुद्ध भक्ति ने स्थानीय जनता के मन में अमिट छाप छोड़ी जिसे कालान्तर में सिख गुरुओं ने भी संजोया। सिख संप्रदाय में संत नामदेव को बहुत ही श्रध्दा से याद किया जाता है। आज भी घुमान गाँव में बाबा नामदेव साहिब का गुरुद्वारा स्थापित है । साथ ही साथ उनकी स्मृति समाधी भी यहाँ स्थित है ।
लगभग दो दशक घुमान में रहने के बाद संत नामदेव वापस पंढरपुर लौट गए । यह उनके जीवन का संध्याकाल था। वे भक्तशिरोमणि थे। पंढरपुर में उनके विठोबा उनकी बाटजोह रहे थे । अंत समय में अपने बालसखा की स्मृति और भी तीव्र हो गयी थी। ईसवी सन् १३५० में इस महान संत की इहलोक लीला पूर्ण हो गई। उस समय उनकी आयु ८० वर्ष थी। उनका संपूर्ण जीवन विट्ठलसमर्पित रहा। वे एक ऐसे पुण्य – प्रकाशस्तंभ थे जिसने अनेक तीर्थयात्रियों को भक्तिमार्ग दिखाया ।
नामदेव के अभंग Namdev’s Abhang
संत नामदेव के अभंग दो प्रकार के हैं।
एक श्रेणी ऐसे अभंगों की है जिनमें ईश्वर के साक्षातकार की तीव्र उत्कंठा व्यक्त हुई है और दूसरे वे हैं जिनमें ईश्वर के साक्षात्कार का आनंद व्यक्त हुआ है। संत नामदेव रचित अभंगों की कुल संख्या २,३७५ है।। अभंगों के विषय, सीख देने की पद्धति संत कवि भी हुआ करते हैं। वे हमें विस्तार के साथ बताते हैं कि हम जीवन किस भांति व्यतीत करें। अपनी अनुभूतियां वे लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। अपनी अनुभूतियों के आनंद में लोगों को सहभागी बनाते हैं।
उदाहरण के लिए संत नामदेव कहते हैं;
बीजाचिये पोटी वटाचा विस्तार सर्व तो आकार तुझा असे ॥
अर्थात्
वटवृक्ष की विशालता जिस प्रकार उसके बीज में सन्निहित रहती है उसी प्रकार संपूर्ण सृष्टि तेरा ही विस्तार है।
‘सर्व हा आकार हरीचे शरीर’
अर्थात्
जितने भी रूप हैं, वे सब ईश्वर का शरीर
जिकडे जावे तिकडे अवघा विठोबा।‘
जहां कहीं भी जाता हूं मुझे विठोबा ही दिखाई देता है।
बक ध्यान लाऊनि टाळी ।
मौने धरुनी मासा गिळी ॥
बगुला दिखाई ऐसा देता है मानो वह ध्यान लगाए हो, किंतु उसका वह ध्यान लगाना मछली निगलने के लिए रहता है। इस दृष्टांत के द्वारा संत नामदेव कहना चाहते हैं कि एक ओर सात्विकता का दिखावा और दूसरी ओर स्वार्थी व घृणित आचरण, दांभिकता है। ऐसे आचरण में दांभिकता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रहता।
संत नामदेव ने जो सीख दी है, उसमें उन्होंने कहा है कि मनुष्य को निरंतर ईश्वर का स्मरण रखना चाहिये। मनुष्य अपनी माता का जैसा आदर करता है, उसी प्रकार के आदर की भावना प्रत्येक स्त्री के विषय में होनी चाहिये । धनलोभ मत करो, उसे मिट्टी की तरह समझो। इंद्रियों के आनंद के पीछे मत जाओ, शरीर को वर के ध्यान, उसकी प्रार्थना, उसके पूजन चिन्तन में लगाओ।
वाणी मनुष्य के लिए एक महान वरदान है । पशुओं को वाणी नहीं रहती। अतः सामान्य भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उसका उपयोग करने से क्या लाभ ? उसका उपयोग भले के लिए, ईश्वर का नाम लेने के लिए, उसकी महिमा का गुणगान करने के लिए होना ही चाहिये। रामनाम का संकीर्तन करो। भक्ति के बिना मुक्ति नहीं है । भक्ति कैसे आए? इसके लिए सबसे पहली बात यह है कि ईश्वर में आस्था, श्रद्धा रखो। श्रद्धा और भक्ति सहचारी हैं।
आध्यात्मिकता के प्रसार के लिये संत नामदेव द्वारा रचा गया साहित्य सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से भी उच्च स्तर का है। अपनी बात कहने का सत नामदेव की रीति भी बडी अप्रतिम है। व जब यह कहना चाहते हैं कि ईश्वर सर्वत्र है तो वे भौंरे का चित्र खडा करते हैं जो पूजा के लिए ले जाए जानेवाले पुष्पों की सुगंध का आस्वाद पहले ही ले चुका होता है ।
एक अन्य अभंग (पदावलि) में वे कहते हैं, हम जब ईश्वर को प्रणाम करने के लिए मंदिर की सीढियों पर खड़े होते हैं, तो सोपानदेव (सीढी रूप परमेश्वर) पर पहले ही पैर रख चुके होते हैं । इस भांति वे अपनी बात इस प्रकार से कहते हैं जो हमारे मनःपटल पर अमिट रूप में अंकित हो जाती हैं ।
ईश्वर हमें जन्म देता है इसलिए संत नामदेव ने उसे माता के रूप में देखा उसे प्राणवायु माना, उसे ही जल माना। ऐसे शुद्ध अन्तःकरण वाले नामदेव को विठोबा ने अपना सखा माना तो आश्चर्य ही क्या ?
इस प्रकार , संक्षेप में भारतवर्ष के महान संत नामदेव के जीवन चरित को स्टोरिकर्स ने आपके समक्ष प्रस्तुत करने का यथा सामर्थ्य प्रयास किया है । यद्यपि स्टोरिकर्स की टीम मानती है कि यह प्रयास पूर्ण नहीं है क्योंकि महापुरुषों का जीवन इतना विराट होता है कि महज कुछ शब्दों में उसे उकेरना संभव ही नहीं है । फिर भी यदि आपको हमारा यह प्रयास पसंद आये तो अपने मूल्यवान कमेन्ट / सुझाव अवश्य दीजियेगा ।
FAQ
Ques.संत नामदेव को किसका अवतार माना जाता है ?
Ans. उद्धव जी का।
Ques. संत् नामदेव की मृत्यु कब हुयी ?
Ans. 3 जुलाई 1350
Ques.संत नामदेव की मृत्यु किस स्थान पर हुयी ?
Ans. पंढरपुर (महाराष्ट्र )
Ques.संत नामदेव के गुरु का क्या नाम था ?
Ans. विसोबा।
Ques.संत नामदेव की रचनाओं को किस नाम से जाना जाता है ?
Ans. अभंग
Ques.संत नामदेव ने पंजाब के किस गाँव में लम्बे समय तक प्रवास किया था ?
Ans. घुमान (जिला – गुरदासपुर , पंजाब ) इस गाँव में संत नामदेव के नाम का गुरुद्वारा भी है।
Ques.संत नामदेव द्वारा स्थापित सम्प्रदाय का क्या नाम है ?
Ans. वरकरी सम्प्रदाय ।
Ques.किस अन्य सम्प्रदाय पर संत नामदेव की शिक्षाओं का प्रभाव देखा जा सकता है ?
Ans. सिख सम्प्रदाय पर ।
Ques. संत नामदेव के समकालिक कुछ अन्य संतों के नाम बताएं ?
Ans. निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, विसोबा, गोरा कुम्हार, संत मुक्ताबाई इत्यादि संत उनके समकालिक थे।
Ques. संत नामदेव के समकालीन दिल्ली पर किसका राज था ?
Ans. अलाउद्दीन खिलजी का।
Revision
Ques. संत नामदेव भारत के किस राज्य से सम्बन्ध रखते हैं ?
Ans. महाराष्ट्र
Ques.संत नामदेव का जन्म कब हुआ ?
26 अक्टूबर 1270
Ques. संत नामदेव का जन्मस्थान क्या है ?
Ans. नरसी बामणी (जनपद हींगोली, महाराष्ट्र ) अब इस स्थान का नाम संत नामदेव के नाम पर नरसी नामदेव कर दिया गया है नागनाथ की घटना भी जनता में बहुत चर्चित है।
Ques.संत नामदेव के माता-पिता का क्या नाम था ?
Ans. दामाशेठ और गोनाई ।
Ques.संत नामदेव का पारिवारिक व्यवसाय क्या था ?
Ans. कपड़े सिलने का, स्थानीय भाषा में वे शिम्पी कहलाते थे।
Ques.संत नामदेव के बचपन का क्या नाम था ?
Ans. नामा ।
Ques.संत नामदेव किसके भक्त थे ?
Ans. भगवान् विट्ठल के। उन्हें पांडुरंग भी कहते है।ये सब भगवान श्री कृष्ण के नाम हैं।
Ques.संत नामदेव भगवान विट्ठल की भक्ति किस रूप में करते थे ?
Ans. सखा (friend) के रूप में।
Ques. संत नामदेव की पत्नी का क्या नाम था ?
Ans. राजाई।
Ques. संत नामदेव की कितनी संताने थीं?
Ans. चार पुत्र थे।
Ques.संत नामदेव के पुत्रों के क्या नाम थे ?
Ans. उनके पुत्रों के नाम नारायण, विट्ठल, गोविंद और महादेव थे।
Ques.संत नामदेव के प्रिय मित्र का क्या नाम था ?
Ans. संत ज्ञानदेव।
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