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Tulsidas / तुलसीदास (Chapter-3 / अध्याय-३)

October 28, 2022 | by storykars

TULSIDAS

अपनी बाल्य-स्मृति के आधार पर, जैसा बाबा Tulsidas का जीवन चरित हमनें पढ़ा और जैसा हमें याद रहा, वही हम यथासम्भव शोध के पश्चात् अपने पाठकों के लिए Hindi Kahani के रूप में लिखने का प्रयास कर रहे हैं । Hindi Kahani एक विधा है जिसके द्वारा विभिन्न तथ्यों, घटनाओं, लोगों, स्थानों को अपनी मातृभाषा में रोचक और सरल  ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं ।  Storykars अपने पाठकों के लिए समय समय पर श्रेष्ठतम जानकारियाँ Hindi Kahani के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है । सुधी पाठकों से निवेदन है कि दृष्टिगत त्रुटियों के निराकरण हेतु निःसंकोच सुझाव दें, टिप्पणी करें, संपर्क करें । 

गतांक -Tulsidas / तुलसीदास (Chapter-2 / अध्याय-2) से आगे –

काशी में तुलसीदास (Tulsidas in Kashi)

 

प्रवास

काशी और तुलसी बाबा (Tulsidas) का सम्बन्ध बहुत अनोखा रहा है। लगभग खट्टा-मीठा । दरअसल उनका अधिक समय काशी में ही बीता । काशी में उनके कई स्थानों पर रहने का ज़िक्र मिलता है । और वैसे ही काशी प्रवास से सम्बंधित तुलसी बाबा की किवदंतियां भी अनेक हैं । अस्सी घाट पर तुलसीदास(Tulsidas) खास तौर से रहते थे । मुकुन्दरामजी के बाग के पश्चिम-दक्खिन कोने में एक कोठरी है। कहते हैं यहां भी तुलसीदासजी  (Tulsidas) काफी रहे । यहां से पहले वे हनुमान फाटक पर रहते थे ।

तुलसीदास जी (Tulsidas) ने अपनी ज्यादा पुस्तकें काशी में रहकर ही पूरी की । प्रसिद्ध विनयपत्रिका’ यहीं रची गई थी । रामचरितमानस’ को वैसे उन्होंने अयोध्या में रहते हुए शुरु किया पर उसका अधिक भाग काशी में ही पूरा किया गया । तुलसीदास जी  (Tulsidas) की मृत्यु भी काशी में ही हुई ।

तुलसीदास जी का विरोध

काशी से तुलसीदास (Tulsidas) जी को विशेष प्रेम था। पर काशी के पंडित तुलसीदास जी से प्रसन्न नहीं थे । उन्होंने इस राम के भक्त को नीचा दिखाने की हर संभव कोशिश की । वे काशी से भगा देने के लिए बेचैन रहते थे। इस सम्बन्ध में कई कथाएं प्रसिद्ध हैं। काशी के पंडितों ने इन्हें मरवा डालने की कोशिश की थी ।

कहते हैं, एक बार पंडितों ने साफ तौर पर विनती की कि आप काशी छोड़कर चले जाइए । तुलसीदास जी (Tulsidas) तैयार हो गए । जाने से पहले उन्होंने एक पद बनाया जिसका भाव इस प्रकार था । “हे भगवान शिव, मैं आपके इस नगर में रहकर राम का नाम ले-लेकर अपना पेट भर रहा था । मैं न किसी को कुछ देने योग्य हूँ; न किसी की भलाई करना ही मेरे भाग्य में लिखा है। इतने पर भी जोराबर लोग जबरदस्ती मुझे यहां से भेज रहे हैं । आप फिर उलाहना न देना ।”

बाबा विश्वनाथ की घोषणा

यह पद उन्होंने विश्वनाथजी के बन्द द्वार के नीचे से अन्दर सरका दिया और काशी से चल पड़े। अगले सुबह जब पंडित लोग विश्वनाथजी के दर्शन के लिए पहुँचे तो फाटक नहीं खुला और अन्दर से भविष्यवाणी हुई, “तुमने एक भक्त को कष्ट दिया है जब तक तुलसीदास (Tulsidas) को लौटा नही लाओगे, तब तक दर्शन नहीं होंगे । ”

पंडित लोग दौड़े गए और विनती-प्रार्थना करके तुलसीदास (Tulsidas) को लिवा लाए । इस घटना से सिद्ध होता है कि काशी के पंडितों को तुलसीदास जी (Tulsidas) से हार माननी पड़ी ।

आखिर तुलसीदास जी (Tulsidas) का विरोध क्यों था ?

पंडितों के विरोध का कारण क्या था ? असल में उस समय तक राम की कथा को जन-भाषा में लिखने का रिवाज नहीं था । रामायण संस्कृत में ही थी। पंडित लोग ही उसका पाठ करते थे । आम लोग संस्कृत समझ नहीं सकते थे । राम-चरित्र का रस साधारण जनता तक पहुंच नहीं पाता था । यह विडंबना ही थी कि प्रभु श्री राम की कथा संजीवनी उस समय सामान्य जनता को उपलब्ध नहीं थी जबकि उसकी सर्वाधिक आवश्यकता पूरे सनातन समाज को थी ।

काशी में जाकर बसने के समय से ही तुलसीदास जी (Tulsidas) अवधी और ब्रज की जनभाषाओं में पद और छंद बना कर राम की प्रार्थना किया करते थे । इन पदों और छन्दों में राम का जीवन होता था । यह सभी लोगों की समझ में आसानी से आ जाता था । तुलसीदास जी (Tulsidas) द्वारा रचे गए पदों और राम कथा वाले छन्दों को सुन-सुन कर लोग उनकी ओर खिंचते थे । दिन-दिन तुलसीदास जी (Tulsidas) का नाम बढ़ता ही जाता था ।

लोकभाषा में लिखने वाले कवि की बढ़ती हुई नामवरी को देखकर काशी के पंडितों को जलन होनी थी, यही कारण था कि वे तुलसीदास जी (Tulsidas) को काशी से निकाल देने पर तुले हुए थे ।

इसके अलावा एक बहुत बड़ा कारण यह था कि तुलसीदास जी (Tulsidas) छोटे-बड़े, नीच और ऊंच का भेद-भाव नहीं बरतते थे । वे सभी को राम की भक्ति के रस से पवित्र करने और एक-एक की सहायता करने के लिए तैयार रहते थे । इसको लेकर भी कितनी ही कथाएं मशहूर हैं ।

हत्यारे की शुद्धि

कहते हैं, एक बार एक हत्यारा मुख से ‘राम-राम’ के शब्द उच्चारता हुआ उनके पास पहुँचा और उसने उनसे दया की भीख मांगी । तुलसीदास जी ने कहा, जब तुम अपने किए पर पछताकर श्रीराम का नाम ले रहे हो तो तुम शुद्ध हो गए ।” वे उसे अपनी कुटी में ले गए। उसके साथ बैठकर पूजा की । प्रसाद और भोजन से उसे खुश किया । पंडितों ने इस बात को लेकर बहुत बवेला मचाया पर तुलसीदास जी (Tulsidas) ने कहा, “आप लोग राम-नाम की महिमा को नहीं जानते और बेकार शास्त्रों की दुहाई देते हैं ।”

वैश्या की शुद्धि

एक कथा और प्रसिद्ध हैकि एक बार जाड़े के मौसम में तुलसीदास जी (Tulsidas) गंगा के जल में खड़े ध्यान कर रहे थे । उन्हें कीमती कपड़ों से ढकी हुई एक वैश्या ने देखा । वह अचरज से खड़ी की खड़ी रह गई। वह मन ही मन तुलसीदास जी पर हंस रही थी तभी तुलसीदास जी (Tulsidas) बाहर निकले और जल के कुछ छीटे उस वैश्या पर जा पड़े । इन छींटों का ऐसा प्रभाव हुआ कि उस स्त्री ने अपना सब ठाठ-बाट त्याग दिया और वह राम की भक्त् बन गई ।

ब्रज में तुलसीदास – Tulsidas in Braj 

तुलसीदास जी राम के भक्त थे, पर कृष्णजी को राम से कुछ अलग नहीं मानते थे । वे अयोध्या गए तो ब्रज भी गए थे । ब्रज जाने का एक मतलब नाभा स्वामी से भेंट करना भी था । ये नाभा स्वामी बड़े ही ऊंचे भक्त थे । इन्होंने ‘भक्तमाल’ नामक सुन्दर पुस्तक की रचना की है। इन नाभाजी ने तुलसीदासजी (Tulsidas) को महर्षि वाल्मीकि का अवतार बताया है । नाभाजी से भेंट के समय में गोस्वामीजी ने उन्हें ‘रामचरितमानस’ दिखाया था ।

ब्रज की यात्रा के सम्बन्ध में एक बड़ी ही रोचक कथा सुनने को मिलती है । कहते हैं, जब तुलसीदासजी से अन्य साधु-सन्तों ने कहा, “आज तो आपको कृष्ण के सामने सिर झुकाना पड़ेगा। श्री राम की मूर्ति तो यहां है नहीं ।” कहते हैं गोस्वामी जी ने कृष्ण की मूर्ति के सामने खड़े होकर एक दोहा कहा-

कहा कहूँ छवि आपकी भले बने हौ नाथ।

तुलसी मस्तक तव नवै, जब धनुषवाण लेउ हाथ

इतना कहते ही बाकी सभी उपस्थित लोगों को दीख पड़ा कि गोपाल की मूर्ति बदलकर राम की मूर्ति बन गई है और मुरली के स्थान पर उनके हाथ में धनुष-बाण आ गए हैं ।गोसाईजी की इसी यात्रा के दौरान वृन्दावन के रामघाट पर राम की मूर्ति स्थापित की गई थी । ब्रज में गोस्वामीजी ने ब्रज की चौरासी कोस की पूरी यात्रा और परिक्रमा की थी । और सभी मन्दिरों के दर्शन किए थे ।

मीरा और तुलसी

मेवाड़ में मीराबाई भगवान कृष्ण की भक्त थी । रानी होने के कारण भगवत भक्ति में लीन होकर पागलों की तरह नाचना, पद गाना राजमहल में (पति की मृत्यु के बाद) अच्छा नहीं माना जाता था । इस कारण से मीरा का विरोध किया जाता था । मीराबाई ने तुलसीदासजी जी (Tulsidas) को एक पत्र लिख कर उनसे पूछा था कि मेरे घरवाले मुझे भक्ति नहीं करने देते हैं । वे मुझे तरह-तरह की तकलीफें देते हैं । आप मेरे माता-पिता के समान हैं । बतलाइए, मुझे क्या करना ठीक है । गोस्वामी ने उत्तर में मीराबाई को एक पद लिन कर भेजा था । जो उनकी पुस्तक ‘विनयपत्रिका’ में शामिल है। पद की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं।

जाके प्रिय न राम-वैदेही।

तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥

तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।

बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥

नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं।

अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥

तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।

जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥

जिसे श्री रामजानकी जी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो। प्रह्लाद ने अपने पिता (हिरण्यकशिपु) को, विभीषण ने अपने भाई (रावण) को,गोपियों ने अपनेअपने पतियों को त्याग दिया, परंतु ये सभी आनंद और कल्याण करने वाले हुए। जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्री रघुनाथ जी के ही संबंध और प्रेम से माने जाते हैं, बस अब अधिक क्या कहूँ। जिस अंजन के लगाने से आँखें ही फूट जाएँ, वह अंजन ही किस काम का? तुलसी कहते हैं कि जिसके संग या उपदेशमें श्री रामचंद्र जी के चरणों में प्रेम हो,वही सब प्रकार से अपना परमहितकारी, पूजनीय और प्राणों से भी अधिक प्यारा है। हमारा तो यही मत है ।

रामचरितमानस (Ramcharit Manas)

अब बात करते हैं तुलसी बाबा की उस महान रचना के बारे में जो सदा सदा के लिए भारत के जनसामान्य के मन में बस  गयी।

संवत् 1628 में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े । उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था । वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये. पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए ।

वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी । माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया । वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे । परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते । यह घटना रोज घटती ।

भगवान शंकर का आदेश

आठवें दिन तुलसीदास जी (Tulsidas) को स्वप्न हुआ । भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो । तुलसीदास जी (Tulsidas) की नींद उचट गयी और  वे उठकर बैठ गये । उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए । तुलसीदास जी (Tulsidas) ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया । इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो । मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी ।”

यह सुनकर संवत्‌ 1631 में तुलसीदास (Tulsidas) ने ‘रामचरितमानस’(Ramcharit Manas)  की रचना शुरु की । दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था । उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी (Tulsidas) ने श्रीरामचरितमानस (Ramcharit Manas) की रचना प्रारम्भ की  । दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ । संवत्‌ 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गए ।

रामचरितमानस के प्रथम श्रोता 

इसके बाद भगवान् की आज्ञा से तुलसीदास जी (Tulsidas) काशी चले आये । वहाँ उन्होंने भगवान्‌ विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस (Ramcharit Manas) सुनाया । रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी । प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया- ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ जिसके नीचे भगवान्‌ शंकर की सही (पुष्टि) थी. उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्‌’ की आवाज भी कानों से सुनी ।

लोकभाषा में श्रीराम कथा लिखने के पीछे एक जनश्रुति यह भी है  कि गोस्वामी जी ने संस्कृत में ही राम की कथा लिखना आरम्भ किया था । एक शुभ दिन कुछ श्लोक उन्होंने बनाए । पर किसी प्रकार वे श्लोक खो गए । तब रात को उन्हें एक सपना आया । सपने में एक ब्राह्मण ने उनसे कहा कि रामायण की रचना संस्कृत में न करके जन भाषा में करो । इस पर तुलसीदास (Tulsidas) ने अगले दिन से अवधी में रामायण लिखनी आरम्भ की ।

उस काल में काशी के राजा भी गोस्वामीजी के परम भक्त थे । तुलसीदासजी (Tulsidas) ने जब रामचरितमानस (Ramcharit Manas) समाप्त किया तो उसे सुनने की इच्छा सबसे पहले काशी के राजा ने ही जाहिर की थी । एक शुभ दिन राम-कथा का बड़ा भारी आयोजन किया गया । काशी के राजा उसमें आ विराजे । हज़ारों सुननेवाले भक्ति-भाव से इकट्ठे हुए । तब तुलसीदासजी (Tulsidas) ने खुद अपने मुख से अपने द्वारा रचे गए ‘रामचरितमानस’(Ramcharit Manas) का पहला पाठ किया था । सुनकर काशी के राजा गद्गद हो उठे थे । इकट्ठी जनता भी भक्ति से विभोर हो उठी थी । और गोस्वामी तुलसीदास का यश दूर-दूर तक फैल गया ।

 पुस्तकें ही बनीं संतान

तुलसीदास जी (Tulsidas) ने विवाह किया था, पर उनके कोई सन्तान नहीं हुई थी । कुछ लोगों की मान्यता है कि एक ‘तारक’ नाम का पुत्र उनके यहां हुआ था जिसकी कुछ ही दिन बाद मौत हो गई थी । पर यदि उन्होंने अपनी पत्नी को न त्यागा होता और उनके बहुत सारे पुत्र भी पैदा हुए होते, तब भी क्या उनको इतना यश मिला होता जितना उन्हें मिला ?

माना जाता है कि जिसके यहां पुत्र नहीं होता उसका वंश नहीं चलता । पर तुलसीदास जी का वंश, उनका नाम तो ऐसा चला है कि करोड़ों लोग उनकी पूजा करते हैं । आप जानते हैं, यह यश उन्हें किनके कारण से मिला ? उन्होंने पत्नी को छोड़ दिया था । पर फिर भी उन्होंने कितने ही पुत्र-पुत्रियों को जन्म दिया । उन्हीं पुत्र-पुत्रियों के कारण तो आज भी उनका यश संसार-भर में फैला हुआ है ।

ये पुत्र-पुत्रियाँ हैं उनकी पुस्तकें, जिन्हें उन्होंने अपनी लम्बी उम्र के बीच रचा । गोस्वामी जी ने कितनी पुस्तकें रची, इस विषय में भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग मत है । कोई कहता है, उन्होंने सोलह पुस्तकें रची, कोई बत्तीस, कोई सत्रह और कोई बारह बताता है ।बहुत खोजबीन के बाद उनकी रची पुस्तकों की गिनती बारह मानी जाती है। इनमें छह बड़ी पुस्तकें हैं। (1) रामचरितमानस, (2) कवितावली (3) गीतावली, (4) दोहावली, (5) विनय पत्रिका तथा (6) रामाज्ञाप्रश्न । छोटी पुस्तकें हैं| (7) रामललानहछू (8) वैराग्य संदीपनी, (9) जानकी मंगल, (10) पार्वती मंगल, (11) कृष्ण गीतावली और (12) बरवै रामायण ।

इनके अलावा ‘हनुमान बाहुक’ एक और विशेष पुस्तक है, जो गोस्वामीजी की रची हुई मानी जाती है । और भी कितने ही नाम हैं पर उनके बारे में संदेह  है ।

राम-कथा का सांस्कृतिक क्षेत्र

श्री राम का चरित्र भारतीय सभ्यता और संस्कृति की सबसे कीमती धरोहर है । सबसे पहले महर्षि वाल्मीकि ने मर्यादा-पुरुषोत्तम राम का चरित्र संस्कृत भाषा में लिखा था । इस रामायण का सारे भारतवर्ष में प्रचार हुआ था । जब भारत की सभ्यता भारत से बाहर स्याम, कम्बोदिया, मलाया, जावा, सुमात्रा आदि देशों में पहुँची तो राम का चरित्र वहां भी पहुँचा । जावा, सुमात्रा के लोग आज इस्लाम धर्म को मानते हैं । उस राम की कथा से उन्हें भी बड़ा प्रेम था । वे उसे खूब पढ़ते हैं । उस पर नाटक और नृत्य नाटक बनाकर बड़ी तैयारी और सजधज के साथ उन्हें खेलते हैं ।

तुलसीदास (Tulsidas)  के समय का समाज

जिस समय गोस्वामी तुलसीदास जी (Tulsidas) ने ‘रामचरितमानस’(Ramcharit Manas) को लिखने का विचार तय किया, उस समय देश की हालत बहुत बुरी थी। लोगों में ऊंच-नीच के भेदभाव बेहद बढ़ गये थे । अलग-अलग लोगों में डर बैठ गया था और आत्म-विश्वास खत्म हो गया था । ऐसी हालत में गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas) ने राम के ऊंचे चरित्र को भारतवासियों के सामने रखने का निश्चय किया । राम के चरित्र में वे सब गुण समा गए हैं, जिन्हें वे जनता में भरना चाहते थे ।

अब तक राम की कथा संस्कृत में ही लिखी जाती थी । पर तुलसीदास ने निश्चय किया कि मैं राम की कथा आम भाषा में लिखूंगा । इसका उस काल के पंडितों ने बहुत विरोध किया था । पर गोस्वामीजी साधारण जनता में राम की कथा को फैलाना चाहते थे । पर किसी भी प्रकार के विरोध की परवाह न की और ‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) का लेखन अयोध्या में आरम्भ किया था ।

‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) एक बड़ी पुस्तक है। यह सात काण्डों में बंटी है। ये काण्ड इस प्रकार हैं। (1) बालकाण्ड,(2) अयोध्याकाण्ड, (3) अरण्यकाण्ड, (4) किष्किन्धाकाण्ड, (5) सुन्दरकाण्ड, (6) लंकाकाण्ड और (7) उत्तरकाण्ड ।

‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) की उपमा मानसरोवर से दी गई है। जिस प्रकार मानसरोवर में शुद्ध और पवित्र जल भरा है। इस ‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) में भी राम के चरित्र का पवित्र जल भरा है। ऊपर लिखे गए सात काण्ड मानो घाट हैं, जिन पर नहाकर भक्त पूरे मानसरोवर का आनन्द ले सकता है।

‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) में खासकर चौपाई और दोहा छन्दों का प्रयोग किया गया है । ये दोनों छन्द गाने में बहुत ही मधुर हैं । जब रामायण की कथा करनेवाले कथाकार मीठे स्वर में इन चौपाइयों को गाते हैं तो आनंद का सोता खुल जाता है । इन दो छन्दों के अलावा इसमें और भी कितने ही छन्दों का प्रयोग किया गया है, जैसे, सोरठा, हरिगीतिका, सवैया आदि ।

इस ग्रन्थ में रामचन्द्रजी को एक आदर्श मानव और भगवान् दोनों को मिले-जुले रूप में दिखाया गया  है । तुलसीदास (Tulsidas) राम को विष्णु का अवतार मानते थे। वे उनके भक्त थे और उनकी पूजा करते थे। पर भगवान् होते हुए भी तुलसी के राम एक आदर्श मनुष्य हैं । अर्थात्, वे एक आदर्श पुत्र,आदर्श भाई, आदर्श पति, आदर्श क्षत्रिय और आदर्श राजा हैं ।

समाज में रहने वाले सामाजिकों के जितने भी स्वरूप हो सकते हैं, उन सबका आदर्श हमें राम के चरित्र से मिलता है । इसी आदर्श की स्थापना के कारण वे मनुष्यों के समान बरतते हुए भी भगवान हैं । रामचन्द्रजी को तुलसी ने सबसे पहले एक सुन्दर बालक के रुप में दिखाया है । बालक राम की बाल-लीलाओं का बड़ा ही रोचक वर्णन ‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) में हुआ है ।

इसके बाद उनका शिष्य रूप हमारे सामने आता जब गुरू विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को अपने वन में लिवा ले जाते हैं तो वे एक सच्चे शिष्य रूप में गुरू की हर आज्ञा का पालन करते हैं यज्ञ को नष्ट करनेवाले राक्षसों को मार डालते हैं । आगे चलकर भी राम गुरू वशिष्ठ की हर आज्ञा पालन करते है ।

जनकपुरी में राम शान्त, गम्भीर और वीर रूप हमें देखने को मिलता है । वे बड़े ही धीरज और सूझ-बझ के साथ शिव के धुनष को तोड़ते हैं । जब परशुराम आकर धनुष-भंग करने वाले व्यक्ति को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि :

“सुनहु राम जिन सिव धनु तोरा। सहस्रबाहु सम सो रिपु मोरा ।”

अर्थात्, हे राम, जिसने शिव का धनुष तोड़ा है वह सहस्रबाहु के समान ही मेरा दुश्मन है । तब रामचन्द्रजी लक्ष्मण की तरह तनिक भी गुस्सा जाहिर नहीं करते। वे ऋषि परशुराम के लिए आदर और सम्मान का भाव ही रखते हैं । ताकतवर होते हए भी वे अपमान का उत्तर अपमान से नहीं देते । नतीजा यह होता है कि परशुराम को झुकना पड़ता है और राम की महिमा को स्वीकार  करना पड़ता है ।

पुत्र के रूप में राम का चरित्र बहुत ही ऊचा पड़ा है। जब कैकेयी दशरथ से दो वर माँगकर राम को वनवास के लिए जाने की आज्ञा देती है. तब भी राम तनिक गुस्सा नहीं होते। वे कैकेयी से कहते हैं:

“सुनु जननी सोइ सुत बड़ भागी। जो पितु मातु वचन अनुरागी ।” अर्थात्, हे माता, वही पुत्र भाग्यवान है जो माता-पिता के वचनों: आदर करता है। रामचन्द्रजी के मन से वनवास दिलानेवाली माता कैकेयी के लिए तनिक भी बरा भाव पैदा नहीं होता । वे बराबर उन्हें कौशल्या के समान आदर के योग्य ही मानते रहते हैं । भरत को राज्य मिलेगा यह सुनकर भी उन्हें दुख नहीं होता । वे कह उठते हैं

“भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू। विधि सब विधि मोहि सम्मुख आजू ।”

अर्थात् , भरत मुझे प्राणी से भी प्यारे हैं । उन्हें राज्य मिलेगा, इसमें सब तरह से भगवान की कृपा ही है । कैकेयी और दशरथ पर लक्ष्मण को गुस्सा करते देखकर राम ने उसे समझाया है कि हमें केवल माता-पिता की आज्ञा का पालन करने का ही अधिकार है, उनकी आज्ञा में शक करने का नहीं ।

राम अपने तीनों भाइयों से अत्यन्त प्रेम करते थे । विशेषकर लक्ष्मण से उन्हें बहुत स्नेह था । लक्ष्मण और भरत दोनों ने ही अपने प्रेम का अच्छा परिचय दिया है। लक्ष्मण राम के प्रेम के वश होकर अपनी पत्नी को और महलों के सुख को छोड़कर वन गए थे । भरत ने हाथ में आया राज्य छोड़ दिया था । चौदह सालों तक वे साधु के वेश में रहे । जब राम के वनवास की खबर भरत ने सुनी तो :

“भरतहिं बिसरेउ पितु भरन, सुनत राम बन गौन।’ – अर्थात् राम का वन में जाना सुनते ही भरत पिता के मरने की बात ही भूल गए । जब लक्ष्मण को शक्ति बाण लगा और वे अचेत हो गए, तब राम के विलाप में राम के भाई के लिए प्रेम के दर्शन गोस्वामी जी ने हमें कराए हैं । राम कह उठते हैं, यदि लक्ष्मण जीवित न हुए तो मैं यहीं प्राण दे दूँगा और सीता को रावण से छुड़ाने की भी कोशिश नहीं करूंगा ।

राम की वीरता का सबूत इससे बड़ा और क्या हो सकता है कि मात्र दो भाइयों ने मिलकर उस देश के सबसे बड़े राजा रावण को हरा दिया । राम एक सच्चे मित्र भी थे । उन्होंने सुग्रीव-विभीषण के साथ अपनी मित्रता को पूरा निभाया । वे चाहते तो लका और किष्किन्धा का राज्य अपने पास रख सकते थे। पर ऐसा उन्होंने नहीं किया । लंका की गद्दी पर उन्होंने विभीषण को बैठाया और किष्किन्धा का राज्य सुग्रीव को सौंप दिया ।

गोस्वामी तुलसीदास ने राम को राजा राम के रूप रसाया है। राम एक आदर्श राजा है । वे मानते हैं –

“जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।  सो नृप अवसि नरक अधिकारी।”

अर्थात्, जिस राजा की प्रजा दुख पाती है, वह राजा अवश्य ही नरक का भागी है । इसी मत के अधीन उन्होंने राजा बनने के बाद अपने सभी सुखों को त्याग कर प्रजा की सेवा की । यहाँ तक कि अपनी प्यारी पत्नी सीता. तक का त्याग किया और उनके पुत्रों का राजमहल के बदले, तपोवन में जन्म हुआ ।

राम दीन-दुखियों और पिछड़े समझे जाने वाले लोगों से दिल में प्रेम करते थे । शबरी के जूठे बेरों को खानाऔर जटायु नामक गिद्ध की दाह-क्रिया अपने हाथों से करना, इस बात का सबूत है । राम एक उत्तम स्वामी भी थे । हनुमान ने स्वयं को उनका तन-मन से सेवक बनाया । राम ने भी उन्हें अपने भाई लक्ष्मण के बराबर स्थान दिया और उन्हें अपना सबसे विश्वासी सहायक माना ।

इस तरह गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas) ने राम के चरित्र के द्वारा भारत के सामने एक ऐसा महान् आदर्श रखा

जो जीवन के हर पहलू में हमारा रास्ता दिखाता है ।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी प्रसिद्ध रचना साकेत के समर्पण में लिखा :

“राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।

कोई कवि बन जाए सहज सम्भाव्य है ।।

अर्थात, श्री रामचन्द्र का चरित्र इतना महान् है कि उनके जीवन की हर घटना कविता है । राम के इस चरित्र को भारत की दुखी जनता के सामने जनता की भाषा में रखकर गोस्वामी जी ने भारत का बड़ा भारी हित किया । इससे लोगों के हृदय में एक नई आशा और एक नई उमंग पैदा हुई, जिसने उन्हें डूबने से बचा लिया ।

श्रीराम के अलावा ‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) के बाकी पात्र भी अपने-अपने ढंग से आदर्श चरित्र हैं । कौशल्या प्रेममयी आदर्श माँ है । दशरथ एक आदर्श पिता हैं, जो पुत्र के लिए अन्याय होता देख जीवित नहीं रह पाते और अपने प्राण त्याग देते हैं । कैकेयी गलती करती है पर बाद में पछताती है । सीता एक आदर्श पतिव्रता पत्नी है । वह वन में जाने से हठ इसलिए करती है कि राम के बिना नहीं रह सकती । वह पति की सेवा वन में भी करती रहना चाहती है । दुबारा वनवास मिलने पर भी वह पति राम को दोष नहीं देती ।

लक्ष्मण और भरत के अपने भाई के लिए प्रेम का जिक्र तो ऊपर किया जा चुका है । सुग्रीव, अंगद और विभीषण मित्रता का आदर्श बताते हैं और हर हालत में श्रीराम की सहायता करते हैं । यहाँ तक कि रावण को भी एक आदर्श शत्रु के रूप में दिखाया गया है ।

गोस्वामीजी ने कहा है कि यदि रावण न होता तो राम की महानता कैसे सामने आती !

‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas) भारतीय संस्कृति का रूप दिखाने वाला एक महान् काव्य है । इसमें सरल भाषा में भारतीय जीवन की तस्वीर खींची गई है । इसलिए राम का यह चरित-काव्य एक धार्मिक पुस्तक बन गया है । काश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक राजा से लेकर रंक तक सब इस पुस्तक का आदर के साथ पाठ करते हैं ।

इसकी महानता का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि भारत की लगभग सभी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है । रामचरित मानस (Ramcharit Manas) का हिंदी अनुवाद करने वाले जे एम मैक्फीद रामायण ऑफ तुलसीदास में रामचरित मानस को द बाइबल ऑफ नोर्दर्न इंडिया बताते हुए कहते हैं कि ईसाई धर्म के प्रचार में जो सबसे बड़ी बाधा थे वह थे राम ! साथ ही मैक्फी इस बात पर हैरानी व्यक्त करते हैं कि आखिर ऐसी क्या ख़ास बात इस पुस्तक में है कि केवल यह पुस्तक एक घर में होने से वह घर पवित्र हो जाता है ।

आज इसकी लाखों प्रतियाँ प्रतिवर्ष छपती हैं । रामचरितमानस (Ramcharit Manas)की विशेषताओं का वर्णन करने के लिए सैंकड़ों पुस्तकें लिखी गई हैं । रामचरितमानस (Ramcharit Manas) केवल राम की कथा के कारण ही मशहूर नहीं है । अपनी भाषा की सुन्दरता और अपने छन्दों और अलंकारों की शोभा के कारण भी यह बहुत सराहा गया है । दोहा और चौपाई को बहुत ही सरलता से मधुर धुन में गाया जा सकता है ।

समाज-सुधारक तुलसीदास (Tulsidas)

जिन दिनों तुलसीदास (Tulsidas) जीवित थे उन दिनों देश और समाज की हालत बहुत निराशाजनक थी । गोस्वामीजी के ‘रामचरितमानस’ (Ramcharit Manas)और दूसरी पुस्तकों ने पहला काम यह किया कि लोगों के मन में छाई निराशा को दर किया । उन्हें ढाढस बँधाया और मुसीबत में पैर जमालर खड़े होने का सन्देश दिया। इस सन्देश ने लोगों को बहुत ही बल दिया ।

दूसरी बात यह है कि गोस्वामीजी ने समाज के हर आदमी के लिए जरूरी कर्तव्य के बारे में साफ-साफ बताया । परिवार के, पिता-पुत्री, पत्नी, भाई आदि एक-दूसरे के साथ कैसा बर्ताव किया? राजा, सेनापति, गुरू और पुरोहित आदि का आचार-विचार कैसा होना चाहिए और कैसे इन्हें प्रजा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए ?

इन सवालों को उन्होंने अपनी पुस्तकों में अच्छा खुलासा किया। इससे जनता को अपने कर्तव्यं का ज्ञान हुआ। विदेशियों के जुल्म के कारण लोगों के जीवन में जो बिखराव आ गया था, वह कम हुआ ।

तीसरी बात, गोस्वामीजी ने गृहस्थी और सन्यासी के कर्तव्यों को अलग-अलग साफ करके समझाया । सन्यासी का कर्तव्य यह नहीं है कि वह समाज से कोई मतलब ही न रखे। सन्यासी का अर्थ यह है कि वह हर तरह से निश्चित होकर अपनी पूरी शक्ति को समाज की सेवा में लगा दे ।

स्वयं तुलसीदास जी (Tulsidas) ने ऐसा ही किया। पत्नी को छोड़कर वे किसी जंगल में नहीं चले गए । वे अयोध्या या काशी में समाज के बीच में रहे । केवल राम की कथा ही लिखकर उन्होंने समाज की सेवा नहीं की बल्कि दीन-दुखियों और गरीबों की सहायता की ।

गोस्वामी जी ने अपने इन काव्यों से हिन्दु जाति के आपसी मतभेदों को मिटाने की पूरी कोशिश की । पहले शिव और विष्णु के भक्त आपस में लड़ा करते थे । तुलसीदास जी ने दोनों ही देवताओं को समान माना । तलसी के राम लंका पर चढ़ाई करने से पहले शिव की पूजा करते हैं और उसके शिव राम को अपना देवता मानते हैं । इसी तरह उन्होंने राम और कृष्ण के भक्तों के मतभेद को भी मिटाया ।

नम्र होते हुए भी तुलसीदास जी (Tulsidas) आत्मसम्मान की भावना से भरपूर थे । वे काशी के पण्डितों के सामने नहीं झुके । उल्टे पंडितों को ही उनसे मात खानी पड़ी । वे एक सच्चे निर्लोभी साधु थे । अपने युग के कितने ही महान् राजा और रईस उसके. मित्र थे । पर उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं चाहा । वे किसी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते थे । गोस्वामी तुलसीदास (Tulsidas)एक महान् कवि के रूप में ही नहीं, महान् मानव के रूप में सदा प्रसिद्ध रहेंगे ।

आखिर में

गोस्वामी जी की मृत्यु संवत् 1680 में हुई थी। मृत्यु के कारण के विषय में कई मत हैं। कुछ लोग कहते हैं कि प्लेग से उनकी मृत्यु हुई और कुछ विद्धानों का मत है कि प्लेग से नहीं, पिरकी (फोड़ा) नामक रोग से हुई। उनकी मृत्यु किस प्रकार भी हुई हो, यह प्रकट है कि वे अन्तिम क्षण तक अपने पूरे होश में रहे और राम का नाम उनकी जिह्रा पर रहा। मरने से ठीक पहले जो अन्तिम छन्द उन्होंने बनाया वह इस प्रकार है :

“राम नाम यश बारिन कै, भयहं चाहत अब मौन।

तुलसी के मुख दीजिए, अब ही तुलसी सौन।।”

अर्थात् राम के नाम का यश बखान कर अब मैं चुप होना चाहता हूँ, तुलसीदास ने मुख में अब तुलसी और गंगाजल डालो।

इन वचनों के साथ वह महापुरूष और कवि सदा के लिए मौन हो गया ।

संवत सोलह सौ अस्सी उसी गंग के तीर।

श्रावण कृष्णा तृतीया तुलसी तज्यो शरीर ॥

 

इस प्रकार , संक्षेप में भारतवर्ष के महान संत गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित को स्टोरिकर्स ने आपके समक्ष प्रस्तुत करने का यथा सामर्थ्य प्रयास किया है । यद्यपि स्टोरिकर्स की टीम मानती है कि यह प्रयास पूर्ण नहीं है क्योंकि महापुरुषों का जीवन इतना विराट होता है कि महज कुछ शब्दों में उसे उकेरना संभव ही नहीं है । फिर भी यदि आपको हमारा यह प्रयास पसंद आये तो अपने मूल्यवान कमेन्ट / सुझाव अवश्य दीजियेगा ।  

 FAQ

तुलसीदास की जन्म व् मृत्यु का वर्ष अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से क्या है ?

यह विवादास्पद है । फिर भी बहुत से विद्वान उनका जन्म सन1532 व मृत्यु 1623 मानते हैं ।

गोस्वामी तुलसीदास की कर्मस्थली का नाम क्या है ?

काशी ।

तुलसीदास जी ने किन भाषाओँ में साहित्य लिखा ?

ब्रज और अवधी ।

तुलसीदास जी की प्रमुख रचनाएं कौन कौन सी हैं?

इस प्रश्न पर विद्वानों में मतभेद है ।  फिर भी आम तौर से उनकी कृतियों की संख्या बारह मानी गयी है।   ये रचनाएँ हैं – (1) रामचरितमानस, (2) कवितावली (3) गीतावली, (4) दोहावली, (5) विनय पत्रिका तथा (6) रामाज्ञाप्रश्न । छोटी पुस्तकें हैं| (7) रामललानहछू (8) वैराग्य संदीपनी, (9) जानकी मंगल, (10) पार्वती मंगल, (11) कृष्ण गीतावली और (12) बरवै रामायण ।

रामचरित मानस(Ramcharit Manas)  को तुलसीदास जी ने कहाँ लिखा ?

रामचरितमानस लेखन का आरम्भ तुलसीदास जी ने अयोध्या में किया था लेकिन मुख्य रूप से यह काशी में ही लिखी गयी है ।

रामचरितमानस (Ramcharit Manas) को तुलसीदास ने कब लिखना शुरू किया ?

संवत १६३१ में चैत्र शुक्ल रामनवमी दिन मंगलवार से ।

रामचरित मानस (Ramcharit Manas) का लेखन तुलसीदास जी ने कब पूर्ण किया ?

संवत्‌ 1633 के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में

रामचरितमानस (Ramcharit Manas) में कितने कांड हैं ?

सात कांड ।

रामचरितमानस में मुख्यतः किन छंदों का प्रयोग हुआ है ?

रामचरितमानस में मुख्यः दोहा व् चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ है लेकिन इनके अतिरिक्त सोरठा , हरिगीतिका और सवैया का भी प्रयोग देखा जा सकता है ।

रामचरितमानस (Ramcharit Manas) के काण्डों के क्या नाम हैं ?

(1) बालकाण्ड,(2) अयोध्याकाण्ड, (3) अरण्यकाण्ड, (4) किष्किन्धाकाण्ड, (5) सुन्दरकाण्ड, (6) लंकाकाण्ड और (7) उत्तरकाण्ड ।

तुलसीदास जी का प्रिय अलंकार कौन सा है ?

सांगरूपक अलंकार ।

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