संत नामदेव – अध्याय १/ Namdev Chapter -1
October 28, 2022 | by storykars

अपनी बाल्य-स्मृति के आधार पर, जैसा संत नामदेव Sant Namdev का जीवन चरित हमनें पढ़ा और जैसा हमें याद रहा, वही हम यथासम्भव शोध के पश्चात् अपने पाठकों के लिए Hindi Kahani के रूप में लिखने का प्रयास कर रहे हैं । Hindi Kahani एक विधा है जिसके द्वारा विभिन्न तथ्यों, घटनाओं, लोगों, स्थानों को अपनी मातृभाषा में रोचक और सरल ढंग से प्रस्तुत कर सकते हैं । Storykars अपने पाठकों के लिए समय समय पर श्रेष्ठतम जानकारियाँ Hindi Kahani के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्ध है । सुधी पाठकों से निवेदन है कि दृष्टिगत त्रुटियों के निराकरण हेतु निःसंकोच सुझाव दें, टिप्पणी करें, संपर्क करें ।
“राम रमे रमि राम संभारै।
मैं बलि ताकी छिन न बिचारै॥टेक॥
राम रमे रमि दीजै तारी।
वैकुंठनाथ मिलै बनवारी॥१॥
राम रमे रमि दीजै हेरी।
लाज न कीजै पसुवां केरी॥२॥
सरीर सभागा सो मोहि भावै।
पारब्रह्म का जे गुन गावै॥३॥
सरीर धरे की इहै बडाई।
नामदेव राम न बीसरि जाई॥४॥”
-संत नामदेव (Namdev)
संत हृदय नवनीत समाना
प्राणिमात्र के कष्ट से जिसका हृदय मख्खन की भाँति पिघलता हो, ऐसा व्यक्ति संत होता है। तो एक बार की बात है, एक सीधा-सरल सा व्यक्ति भोजन के लिए बैठा ही था। उसके सामने कुछ चपातियां और घी की कटोरी थी।
अचानक कहीं से एक कुत्ता आया और झपट्टा मारकर रोटियां ले भागा । भोजन के लिए बैठा व्यक्ति, तुरंत ही उठा और घी की कटोरी हाथ में लिये उस कुत्ते का पीछा करने लगा। कुत्ते के पीछे भागते हुए वह कहता जा रहा था, “अरे मित्र ! थोडा रुको तो! सूखी रोटी कैसे खाओगे ? रोटियों पर घी तो चुपडने दो !”
यह दृश्य देखनेवालों को बड़ा आश्चर्य हुआ। कुछ कहने लगे, “पागल है।” कुछ हंसी उडाने लगे । कुछ ऐसे भी थे, जो उसकी भलमनसाहत की सराहना कर रहे थे।
कुत्ते के पीछे भागनेवाले व्यक्ति को न निदा-उपहास की चिता थी और न प्रशंसा की।उसने कुत्ते को पकड लिया था और बडे प्रेम से, बडी तन्मयता से रोटियों पर घी चुपड-चुपड कर वह कुत्ते को खिलाता जा रहा था ।
उपरोक्त प्रसंग जिस व्यक्ति के जीवन का है, वह सामान्य भावुक व्यक्ति नहीं था । वे संतशिरोमणि नामदेव (Namdev) ही थे ।
संत वही कहलाता है जो छुद्र आसक्ति से ऊपर उठकर भगवदशरण को प्राप्त हो जाए और जिसका जीवन पूर्ण रूप से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो, जो स्वतः के लिए कोई इच्छा न रखता हो, परमार्थ और जगत कल्याण को ही स्वार्थ मानकर सदैव ईशचिंतन में लीन रहकर पवित्र और सात्विक जीवन व्यतीत करता हो ।
संत नामदेव (Namdev) मानते थे कि जिस प्रकार नमक पानी के घोल में नमक अदृश्य रहते हुए भी सदा विद्यमान रहता है उसी प्रकार प्रत्येक जीव में परमेश्वर का अस्तित्व है । सभी मानवों में एक ही तत्व विराजमान है । अपनी इस मान्यता को उन्होंने अपने जीवन में पूर्ण रूप से उतारा था। उन्होंने लोगों को जो सीख दी, वह भी यही थी ।
विठोबा शरणम् (Vithoba Sharanam)
महाराष्ट्र में नरसी बामणी (वर्तमान जनपद हींगोली, महाराष्ट्र) वहां दामासेठ नामक एक सज्जन थे। कपडों की सिलाई करना उसका व्यवसाय था। इसलिए उसके परिवार का उपनाम ‘शिंपी’ अर्थात् दर्जी प्रचलित हो गया था। गोनाई नाम था उनकी धर्मपत्नी का।
दामासेठ ‘विट्ठल’ (Vithoba) के भक्त थे। विट्ठल अर्थात भगवान् श्री कृष्ण का वह रूप जो आज के महाराष्ट्र में व्यापक रूप से पूजित है। तो दामासेठ की पत्नी भी ईश्वर में अनन्य श्रद्धा रखनेवाली बहुत ही भली गृहिणी थी। दोनों विट्ठल की भक्ति करते हुए जीवनयापन कर रहे थे। किंतु उनके घर में एक बार भी झूला नहीं झूला था। यही एक ऐसी बात थी, जो उन्हें दुःख देती थी। दोनों उदास रहा करते थे। निःसंतान दंपत्ति की अभिलाषा थी संतान प्राप्ति, और एक ही आस थी – विट्ठल।
एक दिन गोनाई ने अपने पति से कहा, ” स्वामी ! मंदिर जाओ और भगवान विठ्ठल से कहो कि वह हम पर कृपा कर एक पुत्र प्रदान करें।” दामासेठ ने पत्नी की बात मान ली। मंदिर गए और भगवान विठ्ठल के सामने नतमस्तक हो प्रार्थना की, “हे प्रभु ! हमें एक पुत्र देकर हमारा दुःख निवारण करो।”
उसी रात दामासेठ ने एक सपना देखा। स्वप्न में पांडुरंग (भगवान विट्ठल का ही दूसरा नाम) ने दामासेठ से कहा, “कल सबेरे स्नान के लिए भीमा नदी पर जाओ, भूलना नहीं। नदी में तुम्हें तैरता हुआ एक पिटारा दिखाई देगा। उस बंद पिटारे में एक नन्हा सा शिशु होगा। वह शिशु तुम अपने घर ले आना।”
दामासेठ सबेरे सोकर उठे तो बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने गोनाई को स्वप्न का संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। गोनाई भी प्रसन्न हो उठी।दामासेठ भीमास्नान के लिए गए तो सचमुच एक बंद पिटारा तैरता हुआ उनकी ओर आता दिखाई दिया। दामासेठ ने पिटारा हाथ में लिया तो भीतर से ‘विट्ठल-विट्ठल’ की ध्वनि हो रही थी। पिटारा खोला तो एक तेजस्वी, हंसमुख शिशु उसमें हाथ-पैर मार रहा था। किलाकारियां भर रहा था।
दामासेठ शिशु को घर ले आए और उसे गोनाई की गोद में देते हुए बोले, “सम्हालो। परमात्मा ने हमें यह प्रसाद दिया है।” गोनाई ने बडे दुलार से उसे अपनी बांहों में ले लिया। पति-पत्नी को असीम प्रसन्नता हुई। उन्होंने शिशु का नाम रखा ‘नामा !’ यही वह नामा था जो बाद में संत नामदेव (Sant Namdev) के रूप में विख्यात हुआ।
भगवान ने भोजन किया !
नामदेव (Namdev) जैसे-जैसे बड़े होने लगे, उनका व्यक्तित्व निखरने लगा। उनके जीवन में शुचिता थी, भगवान पांडुरंग के प्रति उनकी श्रद्धा इतनी अगाध थी कि लोग उन्हें उद्धव के अवतार के रूप में देखते थे (उद्धव भगवान श्रीकृष्ण के सखा थे)। नामदेव (Namdev)बचपन से ही शुद्ध भाव से भक्ति करते थे। अपने माता-पिता के समान वे भी विट्ठल-भक्त थे। उनकी भक्ति की भी अनेक कथाएं हैं।
दामासेठ का यह नियम था कि वे मंदिर जाकर भगवान विट्ठल (Vithoba)को भोग लगाते और उसके बाद ही भोजन किया करते। एक दिन बाजार में दामासेठ को बहुत समय लग गया । गोनाई ने सोचा, हो सकता है उन्हें घर लौटने में बहुत समय लग जाए। इसलिए उन्होंने नामदेव से कहा, “ नामा! यह थाली लेकर मंदिर जाओ और भगवान को भोग लगा आओ !”
मां का कहना मानकर, नामा मंदिर गया। पूजन-अर्चन कर उसने भगवान को भोग लगाया। घर से लायी हुई भोग की थाली भगवान के सामने रख दी।
बालक नामा समझता था कि भगवान के सामने जो भोजन उसने रखा है, उसे भगवान विट्ठल (Vithoba)खाएंगे । इसलिए भोग लगाने के बाद, वह हाथ जोडकर वहीं एक कोने में खड़ा रहा। प्रतीक्षा करने लगा ।
थोडी देर प्रतीक्षा करने के बाद विट्ठल की मूर्ति की ओर देखते हुए बाल-सुलभ सरलता से वह बोला, ” प्रभु ! भोजन तैयार है, ग्रहण करें । भोजन करना प्रारंभ करें ।”
भगवान तो भोजन नहीं करते थे । नामा ने जब देखा कि भगवान भोजन नहीं कर रहे हैं, तो वह वडा दुखी हुआ । उदास होकर उसने कहा, हे पांडुरंग ! पिताजी घर में नहीं हैं, इसलिए मां ने मुझे भेजा है। आपकी पूजा में क्या मुझसे कोई भूल हो गई ? लेकिन मुझे पूजा की रीति आती भी तो नहीं ! आप यदि भोजन नहीं करेंगे तो घर लौटने पर मां मुझ पर नाराज होगी ।”
उसने बडे करुण स्वर में कहा, “भगवन् कृपा करो। मुझ पर नाराज न हो ।” बालक नामा के निश्छल, मीठे और करुण शब्दों पर पांडुरंग (Vithoba)मुग्ध हो गए। उन्होंने भोजन किया । नामा ने देखा कि भगवान भोजन कर रहे हैं । साथ ही उसने पांडुरंग को यह कहते सुना कि “देखो नामा ! किसी से कहना नहीं कि पांडुरंग ने भोजन किया।”
नामा प्रफुल्लित हो गया। उसने पांडुरंग के आगे माथा नवाया और खाली थाली लेकर घर लौट गया। वह घर पहुंचा तब तक पिता दामासेठ घर लौट आए थे। नामा (Namdev) को खाली थाली लिये लौटा देख मां, ने पूछा, “अरे नामा ! प्रसाद कहां है !”
“मां, वह तो पांडुरंग ने खा लिया”-नामा (Namdev) ने सही-सही बात बता दी।
पिता दामासेठ ने सुना तो वे अचम्भे में पड गए। आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोले, “क्या कहता रे नामा ? पांडुरंग (Vithoba)ने खा लिया ! ऐसा कैसे हो सकता है रे ?”
“हां पिताजी ! भगवान आए और उन्होंने खाना खा लिया,” नामा (Namdev) ने बडी सहजता से उत्तर दिया। नामदेव का निश्छल, सरल चेहरा देख पिता सोचने लगे, वह जो कुछ कह रहा है, पूरी तरह सच है। उसकी ऐसी उमर भी नहीं थी जो वह झूठ बोले। दूसरी ओर यह विश्वास भी नहीं हो रहा था कि पांडुरंग ने भोजन किया होगा। इसलिए दामासेठ ने नामा से प्रश्न किया, “अच्छा नामा, एक बात बताओ ! क्या तुम मुझे भगवान पांडुरंग (Vithoba)को भोजन करते हुए दिखा सकते हो?”
नामा ने बडे विश्वास के साथ उत्तर दिया, ” क्यों नहीं? कल ही दिखा दूंगा!”
आओ, भोग लगाओ मेरे मोहन !
दूसरे दिन पिता-पुत्र भोग लेकर मंदिर गए। नित्य के अनुसार, पूजा की, भोग लगाया और प्रतीक्षा करने लगे कि पांडुरंग (Vithoba)भोजन करें।
बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी जब विट्ठल (Vithoba)भोजन करते दिखाई नहीं दिये तो नामा (Namdev) चिंतित हो गया । वह सोचने लगा, भगवान यदि भोजन नहीं करेंगे तो मेरे मातापिता क्या सोचेंगे? यही कि पिछले दिन भगवान का भोग मैंने ही खा लिया होगा। क्या वे मुझ पर नाराज नहीं होगे?
यह विचार आते ही वह विट्ठल(Vithoba) से कहने लगा, “भगवन् ! कृपा करो, खाना खा लो।” इस पर भी मूर्ति में कोई हलचल नहीं हुई तो नामा बडा दुखी हो गया। आर्तस्वर में वह कहने लगा, “प्रभु ! इतने कठोर न बनो। क्या मेरे मातापिता मेरे बारे में अन्यथा नहीं सोचेंगे? क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि पिछले दिन मैंने ही तुम्हारा भोग खा लिया था ? क्या वे मुझ से रुष्ट नहीं होंगे कि मैं उनसे असत्य बोला? कल तुमने जब भोग ग्रहण किया था तो आज क्यों ऐसा कर रहे हो? क्या यह उचित है ?”
बालक नामा (Namdev) के दुख से, दीनों के दयालु पांडुरंग द्रवित हो गए। उन्होंने मुख खोल दिया। नामा हर्षित हो गया। उसने एक-एक कौर अपने इष्ट देवता के मुख में डालना आरंभ कर दिया।
पिता ने यह दृश्य देखा तो वे धन्य हो गए। घर लौटते ही उन्होंने संपूर्ण प्रसंग गोनाई को कह-सुनाया। गोनाई भी पुलकित हो उठी। पुत्र के प्रति माता-पिता का प्रेम असीम हो गया।
गृहस्थाश्रम
नामदेव (Namdev) की आयु बढती जा रही थी और आयु के साथ ही, बाल्यकाल से ही ईश्वर के प्रति उसकी भक्ति भी अधिकाधिक बढती जा रही थी। उसका अधिकाधिक समय विट्ठल (Vithoba)के मंदिर में पांडुरंग का ध्यान करने में, उसके नामसंकीर्तन में ही व्यतीत होने लगा।
दामासेठ बहुत गरीब नहीं थे। नामा को विवाहयोग्य होते देख उन्होंने बडी धूमधाम से उसका विवाह कर दिया। नामदेव (Namdev) की पत्नी का नाम था राजाई। उसे राधाबाई भी कहते थे। उसने नारायण, विट्ठल, गोविंद और महादेव नामक ४ पुत्रों को जन्म दिया।
ईश्वर की सहायता से समय बीतता गया। दामासेठ वृद्ध हो चले। माता-पिता की इच्छा थी कि नामदेव सिलाई के काम में उन्हें सहायता करें। नामदेव के मन में माता-पिता के प्रति श्रद्धा थी किंतु विट्ठलभक्ति में वह इतना लीन रहता था कि, घर की ओर उसका ध्यान बहुत कम हो जाता। परिवार को नामदेव की कोई सहायता नहीं मिलती थी।
इससे परिवार कठिनाई में आ गया। उसे कष्ट होने लगे। कष्टों के कारण मां गोनाई के स्वभाव में चिडचिडापन आगया। वह बात-बात में खीझने लगी। नामदेव (Namdev) के लिए यह जब असह्य हो गया तो एक दिन वह घर छोड़कर चले गए। मंदिर में जाकर बैठ गए।
इन्हीं परिस्थितियों में राजाई एक दिन अपने एक पडोसी के यहां गई। अपने परिवार के कष्टों का दुखडा सुनाने लगी तो किसी ने बाहर से उसे आवाज लगाई। किसने आवाज लगाई यह देखने के लिए राजाई बाहर आयी तो देखा, सामने एक व्यक्ति खडा है। उसने अपना नाम केशवसेठ बताया और बोला, “ आवाज मैंने ही लगाई । मैं नामदेव (Namdev) का बालमित्र हूं। मुझपर उसकी कुछ देनदारी है। उसे कुछ पैसे देने हैं। कृपा करके ले लो, मना मत करो।”
केशवसेठ राजाई को पैसे देकर चला गया। कठिनाई के समय पैसे पाकर राजाई का धीरज बंधा। वह बाजार गई और जरूरत का सभी सामान खरीद लाई। घर पहुंचकर भोजन बनाया और प्रतीक्षा करने लगी। सास गोनाई उधारी में अनाज लाने के लिए कहीं बाहर गई थी। वापस आते समय वह मंदिर गई और नामदेव (Namdev) को समझा-बुझाकर उसे अपने साथ घर ले आयी।
माता-पुत्र घर पहुंचे तो बदली हुई परिस्थिति देखकर आश्चर्यचकित रह गए । राजाई सुंदर-सुंदर वस्त्र खरीद लायी थी। भोजन तैयार था। नामदेव (Namdev) ने मां से पूछा, “यह सब कैसे हो गया ?” मां क्या उत्तर देती, उसे भी कुछ पता नहीं था।
पांडुरंग की लीला
राजाई ने पूरी बात बताई। नामदेव (Namdev) को बडा आश्चर्य हुआ । वह सोच में पडा । क्योंकि केशवसेठ नाम का उसका कोई मित्र था ही नहीं। उसने किसी को कोई कर्ज भी नहीं दिया था। वह सोचने लगा कि कौन हो सकता है जो उसके परिवार की अवस्था भलीभांति जानता हो? बहुत सोचविचार करने के बाद उसे लगा कि हो न हो, यह लीला सखा-पांडुरंग की ही है।
यह विचार आते ही वह रोमांचित हो उठा। केशवसेठ के वेश में आकर पांडुरंग ने यह बताया था कि वह नामदेव का अनन्य सखा है। यह बात नामदेव (Namdev) के लिए निश्चित रोमांचकारक थी। किन्तु उसकी आंखों में यह सोचकर आंसू आ गए कि उसके लिए परमेश्वर को इतना कष्ट उठाना पड़ा।
नामदेव (Namdev) यह सोचकर भयभीत हो गया कि उसे जो धनप्राप्ति हुई है, वह उसे विट्ठल (Vithoba)भक्ति से विचलित करेगी। उसने तत्काल ही ब्राह्मणों और गरीबों को बुलवाया और सारा धन उन्हें बांट दिया। परिवार की हालत फिर से ज्योंकि-त्यों हो गई।
संत नामदेव (Namdev) की विट्ठलभक्ति और सखा पांडुरंग की नामदेव पर प्रसन्नता का दर्शन करानेवाली अनेक कथाएं हैं।
माता-पिता, पत्नी-पुत्रों के अतिरिक्त, संत नामदेव का, संतमित्रों और भक्तों का भी बहुत बडा परिवार था। सब की जातियां भिन्न थीं किंतु ईश्वर भक्ति में सभी एक थे। ज्ञानदेव ब्राह्मण थे। नामदेव (Namdev) दर्जी थे। भक्त नरहरि स्वर्णकार थे। भक्त सावंल जाति से माली थे। गोरा कुंभार जाति से कुम्हार थे। चोखा मेला हलकी मानी जानेवाली जाति के थे। व्यक्तिगत जीवन में सब अपना-अपना व्यवसाय करते थे। किंतु विट्ठल भक्ति में सबका समूह एक था ।
संत नामदेव और संत ज्ञानदेव
मराठी संतों में संत नामदेव (Namdev) का स्थान सर्वोच्च माना जाता है । ज्ञानदेव ‘योगिराज’ माने जाते थे और ५ महान संतों में वे अग्रगण्य थे। आयु में वे संत नामदेव से एक वर्ष छोटे थे। उन्होंने संत नामदेव की ख्याति सुनी तो उनसे मिलने के लिए वे पंढरपुर गए। वहां नामदेव (Namdev) को देखते ही वे उनके चरणों पर गिर पडे । यह भेंट ज्ञान व भक्ति का संगम मानी जाती है ।
इस भेंट में संत ज्ञानदेव संत नामदेव (Namdev) से बोले, ” मेरी इच्छा है, आपके साथ तीर्थयात्रा पर निकलूं । इसी विचार से यहां आपके पास आया हूं । कृपा कर बताइये, मेरी यह इच्छा पूरी होगी या नहीं ?”
मैं तो पांडुरंग (Vithoba)का दास हूं । वे मेरे स्वामी हैं । मैं उनसे पूछूंगा । उनकी अनुमति होगी तो मैं आपके साथ चलूंगा ” -संत नामदेव(Namdev) ने उत्तर दिया ।
इसके बाद दोनों संतशिरोमणि मंदिर गए । विट्ठल (Vithoba)के समक्ष नतमस्तक हुए तो प्रभु ने दोनों को अतीव स्नेह से आशीर्वाद दिया । दोनों संतों ने तीर्थयात्रा के लिए अनुमति मांगी। ज्ञानदेव बोले, ” तीर्थयात्रा के निमित्त नामदेव के सत्संग का लाभ उठाने की इच्छा है नामदेव (Namdev) बोले, प्रभु ! आपकी अनुमति होगी तभी जाऊंगा ।
पांडुरंग (Vithoba)बोले, “नामदेव ! ज्ञानदेव के साथ अवश्य जाओ । वह कोई अन्य नहीं, साक्षात् परब्रह्म है किंतु याद रहे मुझे भूलना नहीं । तुम मेरे प्राणसदृश हो । उन्होंने ज्ञानदेव से कहा, “ज्ञानदेव ! देखो नामदेव (Namdev) का ध्यान रखना, उसकी देखभाल करना।”
हस्तिनापुर की यात्रा
प्रभु पांडुरंग का शुभाशीष ले दोनों संतों ने भीमा में अवगाहन किया और निकल पडे तीर्थः यात्रा पर । यात्रा में सारा समय दोनों संत अध्यात्म-चर्चा में लीन रहते ।
हस्तिनापुरवासियों ने दोनों महान् संतों की कीर्ति पहले से ही सुन रखी थी। अब जैसे ही उन्हें ज्ञात हुआ कि वे तीर्थयात्रा पर निकले हैं।
और हस्तिनापुर पहुंच रहे है, तो उन्हें असीम हर्ष हुआ। उन्होंने दोनों के स्वागत की तैयारियां की।
दोनों सन्त हस्तिनापुर पहुंचे तो विशाल जनसमुदाय उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
संत नामदेव (Namdev) ने अपनी मधुर वाणी में हस्तिनापुरवासियों को अनेक भजन, अभंग (पदावलियां) सुनाए । उनकी ऐसी भावविभोरता थी कि श्रोता सभी कुछ भूल जाते। ऐसा लगता माना भक्तिरस का अमृतपान पाकर वे स्वर्गीय आनन्द में डूब गए हों।
इस हस्तिनापुर यात्रा के विषय में अनेक कथाएं हैं। एक कथा दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी के विषय में भी है। नामदेव की कीर्ति सुनकर एक दिन वह उनके भजन सुनने के लिए गया और बहुत समय तक भजन सुनता रहा। भजन सुनने के बाद उसने सोचा कि नामदेव (Namdev) वास्तव में संत है या नहीं इसकी परीक्षा ली जाए।
इसलिए भजन होने के बाद वह संत नामदेव से बोला, ” देखो, एक गाय मरी पडी है । तुम वास्तविक संत हो तो गाय को फिर से जीवित कर दोगे। ऐसा न कर सके तो मैं तुम्हारा सिर धड से अलग करवा दूंगा।”
नामदेव ने तत्काल उत्तर दिया, “जाओ! ४ दिनों के भीतर गाय पुनर्जीवित हो जाएगी।”
बादशाह चला गया। इधर नामदेव (Namdev) अपने सखा पांडुरंग के नाम-संकीर्तन में लीन हो गए। वे इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें अपने तन की भी सुध नहीं रही। बहुत समय बाद जब वे सुध में आए तो उन्हें पता चला कि गाय पुनर्जीवित होकर खडी हो गई है।
बादशाह के सेवकों ने बादशाह को गाय के उठ खडे होने का समाचार दिया तो वह दौडेदौडे सन्त नामदेव (Namdev) के पास पहुंचा और उनके चरणों पर गिर पडा। उनकी महानता के गुणगान करने लगा।
नामदेव (Namdev) व ज्ञानदेव हस्तिनापुर से निकलकर काशी पहुंचे। वहां चार महीने रहे। इस अवधि में सन्त कबीरदास से उनकी भेंट हुई। काशी से ही उन्होंने प्रयाग, गया व अन्य पुण्य स्थलों की यात्रा की। इस यात्रा में जिस समय उन्होंने मारवाड की सीमा में प्रवेश किया, उस समय गर्मी का मौसम अपनी चरमसीमा पर था। असह्य गर्मी पड रही थी।
गर्मी में चलते-चलते दोनों संत श्रेष्ठ थक गए। प्यास से व्याकुल हो गए किन्तु पानी का कहीं कोई चिन्ह नहीं। इस अवस्था में चलतेचलते उन्हें दूर एक कुंआ दिखाई दिया। पास पहुंचे तो देखा कि कुंआ बहुत गहरा है, पानी बहुत नीचे चला गया है। पानी खींचने के लिए न कोई बर्तन है और न कोई रस्सी। दोनों सोचने लगे, क्या किया जाए?
संत ज्ञानदेव सिद्ध योगी थे । यौगिक क्रिया के द्वारा सूक्ष्म रूप में कुएं के भीतर गए और भरपेट पानी पीकर लौट आए । नामदेव (Namdev) से भी उन्होंने कहा, “आप चिंता न करें। आप संभवत: जानते न हों कि मुझे तांत्रिक क्रियाएं आती हैं । मैं अपनी शक्ति से ऐसा कुछ करूंगा कि पानी ऊपर आकर बहने लगे ।”
संत नामदेव बोले, “मैं क्यों चिंता करूं ? यह तो प्रभु की चिंता का विषय है ।”
नामदेव (Namdev) अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि पानी ऊपर तक चढ आया और कगार के ऊपर से बहने लगा ।
यह दृश्य देख संत ज्ञानदेव स्तंभित रह गए । उन्होंने संत नामदेव(Namdev) के समक्ष प्रणिपात कर कहा, सत्य ही आपने भगवान श्रीकृष्ण के हृदय में स्थान प्राप्त कर लिया है। सही अर्थों में आप सिद्ध पुरुष हैं ।
कहा जाता कि उपरोक्त कुंआ आज भरा हुआ है और उसका जल ऊपर से कर रहता है।
शुद्ध हृदय में भरा भक्तिभाव ही अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि जाति, इसका यह प्रत्यक्ष प्रमाण था। ईश्वर सच्चे हृदय से की गयी भक्ति से ही प्रसन्न होता है।
क्रमशः……
FAQ
Ques. संत नामदेव भारत के किस राज्य से सम्बन्ध रखते हैं ?
Ans. महाराष्ट्र
Ques.संत नामदेव का जन्म कब हुआ ?
26 अक्टूबर 1270
Ques. संत नामदेव का जन्मस्थान क्या है ?
Ans. नरसी बामणी (जनपद हींगोली, महाराष्ट्र ) अब इस स्थान का नाम संत नामदेव के नाम पर नरसी नामदेव कर दिया गया है
Ques.संत नामदेव के माता-पिता का क्या नाम था ?
Ans. दामाशेठ और गोनाई ।
Ques.संत नामदेव का पारिवारिक व्यवसाय क्या था ?
Ans. कपड़े सिलने का, स्थानीय भाषा में वे शिम्पी कहलाते थे।
Ques.संत नामदेव के बचपन का क्या नाम था ?
Ans. नामा ।
Ques.संत नामदेव किसके भक्त थे ?
Ans. भगवान् विट्ठल के। उन्हें पांडुरंग भी कहते है।ये सब भगवान श्री कृष्ण के नाम हैं।
Ques.संत नामदेव भगवान विट्ठल की भक्ति किस रूप में करते थे ?
Ans. सखा (friend) के रूप में।
Ques. संत नामदेव की पत्नी का क्या नाम था ?
Ans. राजाई।
Ques. संत नामदेव की कितनी संताने थीं?
Ans. चार पुत्र थे।
Ques.संत नामदेव के पुत्रों के क्या नाम थे ?
Ans. उनके पुत्रों के नाम नारायण, विट्ठल, गोविंद और महादेव थे।
Ques.संत नामदेव के प्रिय मित्र का क्या नाम था ?
Ans. संत ज्ञानदेव।
RELATED POSTS
View all