बिना विचारे जो करे- a great lesson of life
November 24, 2022 | by storykars

बिना विचारे जो करे कहानी है -नगर सेठ स्वर्णसेतु और नाई की । यह कहानी हमें दो प्रकार की सीख देती है ।
पहली बात तो यह कि बिना विचारे भविष्य में होने वाले परिणामों पर विचार किये बिना तो यदि कोई अच्छा काम भी किया जाता है तो वह हानिकारक सिद्ध हो सकता है ।
दूसरी बात यह कि लालच के वशीभूत होकर बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए ।
यानी बिना विचार किए, एकदम से कार्य करके यह सोचना कि आपको भी लाभ प्राप्त होगा, यह विचार ही गलत है ।
इसके परिणाम लाभकारी होने के बजाय अधिकांशतः भारी मुसीबत में ही डालने वाले होते हैं ।
कहानी एक नगरसेठ की :
कोसल प्रदेश के एक प्रसिद्ध नगर देवप्रस्थ में स्वर्णसेतु नाम का एक नगर सेठ रहता था । लोक-सेवा और धर्मकार्यों में रत रहने से उसके धन-संचय में कुछ़ कमी आ गई ।
और अचानक उसने देखा कि जैसे ही लोगों को यह ज्ञात हुआ कि उसके पास धन का अभाव होता जा रहा है, लोगों का उसके प्रति व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन आ गया ।
उसका समाज में मान घट गया । वह लोगों के स्वभाव में आने वाले परिवर्तन को साफ़-साफ़ महसूस कर सकता था ।
लेनदार और देनदार अब कुछ अलग ही तरीके से पेश आने लगे वह लोगों के स्वभाव में आने वाले परिवर्तन को साफ़-साफ़ महसूस कर सकता था ।
जो लोग उससे दान-दक्षिणा प्राप्त कर उसकी जय-जयकार करते रहते थे, वे भी उसकी उपेक्षा करने लगे ।
इससे स्वर्णसेतु को बहुत दुःख हुआ । दिन-रात चिन्तातुर रहने लगा । यह चिन्ता निष्कारण नहीं थी ।
उसे याद आया कि-
लक्ष्मित्वयालंकृतमानवा ये पापैर्विमुक्ता नृपलोकमान्याः ।
गुणैर्विहीना गुणिनो भवन्ति दुःशीलिनः शीलवतां वरिष्ठाः ।।
अर्थात जिसके ऊपर माता लक्ष्मी की कृपा होती है, वह व्यक्ति तमाम पापों से मुक्त होकर समाज में किसी राजा की भांति मान्य हो जाता है ।
लक्ष्मी माता की कृपा प्राप्त व्यक्ति कोई गुण न होते हुए भी बहुत गुणवान माना जाता है, दुश्चरित्र होने के बावजूद उसकी गिनती बड़े-बड़े शीलवान लोगों में की जाती है ।
सत्य ही कहा गया है कि-
लक्ष्मीर्भूषयते रुपं लक्ष्मीर्भूषयते कुलम् ।
लक्ष्मीर्भूषयते विद्यां सर्वाल्लक्ष्मीर्विशिष्यते ।।
अर्थात लक्ष्मी से ही रूप की शोभा है , लक्ष्मी से ही कुल की शोभा है । विद्या की शोभा भी लक्ष्मी से ही है और सब प्रकार से लक्ष्मी ही है जो सामान्य व्यक्ति को भी विशिष्ट बना देती है ।
जबकि –
पाण्डित्यं शोभते नैव न शोभन्ति गुणा नरे ।
शीलत्वं नैव शोभेत महालक्ष्मी त्वया विना ।।
अर्थात बिना माता लक्ष्मी की कृपा के किसी व्यक्ति के पाण्डित्य, भलमनसाहत , शील जैसे उत्तम गुण भी बेकार ही माने जाते हैं ।
धनहीन मनुष्य के गुणों का भी समाज में आदर नहीं होता। उसके अपने भी उससे सम्बन्ध जोड़ने में कतराते हैं ।
वह व्यक्ति जो निर्धन है ,उसके शील-कुल-स्वभाव की श्रेष्ठता भी दरिद्रता में दब जाती है ।
बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा के सब गुण निर्धनता के तुषार में कुम्हला जाते हैं ।
जैसे पतझड़ के झंझावात में मौलसरी के फूल झड़ जाते हैं, उसी तरह घर-परिवार के पोषण की चिन्ता में उसकी बुद्धि कुन्द हो जाती है ।
घर की घी-तेल-नमक-चावल की निरन्तर चिन्ता प्रखर प्रतिभा-संपन्न व्यक्ति की प्रतिभा को भी खा जाती है ।
धनहीन घर श्मसान का रुप धारण कर लेता है ।
प्रियदर्शना पत्नी का सौन्दर्य भी रुखा और निर्जीव प्रतीत होने लगता है । जलाशय में उठते बुलबुलों की तरह उनकी मानमर्यादा समाज में नष्ट हो जाती है ।
निर्धनता की इन भयानक कल्पनाओं से स्वर्णसेतु का दिल कांप उठा ।
उसने सोचा, इस अपमानपूर्ण जीवन से मृत्यु अच्छी़ है । इन्हीं विचारों में डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई । नींद में उसने एक स्वप्न देखा ।
स्वप्न में कुलदेवता ने एक भिक्षु की वेषभूषा में उसे दर्शन दिये, और कहा “कि वैराग्य छो़ड़ दे । तेरे पूर्वजों ने मेरा भरपूर आदर किया था ।
इसीलिये तेरे घर आया हूँ । कल सुबह फिर इसी वेष में तेरे पास मेरी माया से सृजित किया हुआ एक भिक्षुक आएगा ।
उस समय तू उसे लाठी की चोट से मार डालना । तब वह मरकर स्वर्णमय हो जाएगा । वह स्वर्ण तेरी निर्धनता को हमेशा के लिए मिटा देगा ।”
सुबह उठने पर स्वर्णसेतु इस स्वप्न की सार्थकता के संबन्ध में ही सोचता रहा। उसके मन में विचित्र शंकायें उठने लगीं ।
न जाने यह स्वप्न सत्य था या असत्य, यह संभव है या असंभव, इन्हीं विचारों में उसका मन डांवाडोल हो रहा था ।
हर समय धन की चिन्ता के कारण ही शायद उसे धनसंचय का स्वप्न आया था ।
उसे किसी के मुख से सुनी हुई यह बात याद आ गई कि रोगग्रस्त, शोकातुर, चिन्ताशील और कामार्त्त मनुष्य के स्वप्न निरर्थक होते हैं ।
उनकी सार्थकता के लिए आशावादी होना अपने को धोखा देना है ।
स्वर्णसेतु यह सोच ही रहा था कि स्वप्न में देखे हुए भिक्षु के समान ही एक भिक्षु अचानक वहां आ गया ।
उसे देखकर स्वर्णसेतु का चेहरा खिल गया, सपने की बात याद आ गई । उसने पास में पड़ी लाठी उठाई और भिक्षु के सिर पर मार दी ।
भिक्षु उसी क्षण मर गया । भूमि पर गिरने के साथ ही उसका सारा शरीर स्वर्णमय हो गया । स्वर्णसेतु ने उसका स्वर्णमय मृतदेह छिपा लिया ।
बिना विचारे जो करे- कहानी एक नाई की :
उसी समय एक नाई वहां आ गया था । उसने यह सब देख लिया था । स्वर्णसेतु ने उसे पर्याप्त धन-वस्त्र आदि का लोभ देकर इस घटना को गुप्त रखने का आग्रह किया ।
नाई ने वह बात किसी और से तो नहीं कही, किन्तु धन कमाने की इस सरल रीति का स्वयं प्रयोग करने का निश्चय कर लिया ।
उसने सोचा यदि एक भिक्षु लाठी से चोट खाकर स्वर्णमय हो सकता है तो दूसरा क्यों नहीं हो सकता?
मन ही मन ठान ली कि वह भी कल सुबह कई भिक्षुओं को स्वर्णमय बनाकर एक ही दिन में स्वर्णसेतु की तरह धनवान हो जाएगा ।
इसी आशा से वह रात भर सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा, एक पल भी नींद नहीं ली ।
सुबह उठकर वह भिक्षुओं की खोज में निकला । पास ही एक भिक्षुओं का मन्दिर था ।
मन्दिर की तीन परिक्रमायें करने और अपनी मनोरथसिद्धि के लिये भगवान से वरदान मांगने के बाद वह मन्दिर के प्रधान भिक्षु के पास गया।
और विनम्र निवेदन किया कि- “आज की भिक्षा के लिये आप समस्त भिक्षुओं समेत मेरे द्वार पर पधारें ।”
प्रधान भिक्षु ने नाई से कहा- “तुम शायद हमारी भिक्षा के नियमों से परिचित नहीं हो । हम उन ब्राह्मणों के समान नहीं हैं जो भोजन का निमन्त्रण पाकर गृहस्थों के घर जाते हैं ।
हम भिक्षु हैं, जो यथेच्छा़ से घूमते-घूमते किसी भी भक्तश्रावक के घर चले जाते हैं और वहां उतना ही भोजन करते हैं जितना प्राण धारण करने मात्र के लिये पर्याप्त हो ।
अतः, हमें निमन्त्रण न दो । अपने घर जाओ, हम किसी भी दिन तुम्हारे द्वार पर अचानक आ जायेंगे ।”
नाई को प्रधान भिक्षु की बात से कुछ़ निराशा हुई, किन्तु उसने नई युक्ति से काम लिया ।
वह बोला- “मैं आपके नियमों से परिचित हूं, किन्तु मैं आपको भिक्षा के लिये नहीं बुला रहा । मेरा उद्देश्य तो आपको पुस्तक-लेखन की सामग्री देना है ।
इस महान् कार्य की सिद्धि आपके आये बिना नहीं होगी ।” प्रधान भिक्षु नाई की बात मान गया । नाई ने जल्दी से घर की राह ली ।
वहां जाकर उसने लाठियां तैयार कर लीं, और उन्हें दरवाजे के पास रख दिया । तैयारी पूरी हो जाने पर वह फिर भिक्षुओं के पास गया और उन्हें अपने घर की ओर ले चला ।
बिना विचारे जो करे- कहानी भिक्षुकों की :
भिक्षु-वर्ग भी धन-वस्त्र के लालच से उसके पीछे-पीछे चलने लगा । भिक्षुओं के मन में भी तृष्णा का निवास रहता ही है ।
जगत् के सब प्रलोभन छोड़ने के बाद भी तृष्णा संपूर्ण रुप से नष्ट नहीं होती ।
देह के अंगों में जीर्णता आ जाती है, बाल रुखे हो जाते हैं, दांत टूट कर गिर जाते हैं, आंख-कान बूढे़ हो जाते हैं, केवल मन की तृष्णा ही है जो अन्तिम श्वास तक जवान रहती है ।
उनकी तृष्णा ने ही उन्हें ठग लिया । नाई ने उन्हें घर के अन्दर ले जाकर लाठियों से मारना शुरु कर दिया ।
उनमें से कुछ तो वहीं धराशायी हो गये, और कुछ़ का सिर फूट गया । उनका कोलाहल सुनकर लोग एकत्र हो गये । नगर के द्वारपाल भी वहाँ आ पहुँचे ।
वहाँ आकर उन्होंने देखा कि अनेक भिक्षुओं का मृतदेह पड़ा है, और अनेक भिक्षु आहत होकर प्राण-रक्षा के लिये इधर-उधर दौड़ रहे हैं
नाई से जब इस रक्तपात का कारण पूछा़ गया तो उसने स्वर्णसेतु के घर में आहत भिक्षु के स्वर्णमय हो जाने की बात बतलाते हुए कहा कि वह भी शीघ्र स्वर्ण संचय करना चाहता था ।
नाई के मुख से यह बात सुनने के बाद राज्य के अधिकारियों ने स्वर्णसेतु को बुलाया और पूछा कि- “क्या तुमने किसी भिक्षु की हत्या की है ?”
स्वर्णसेतु ने अपने स्वप्न की कहानी आरंभ से लेकर अन्त तक सुना दी ।
राज्य के धर्माधिकारियों ने उस नाई को मृत्युदण्ड की आज्ञा दी और कहा -बिना सोचे काम करने वाले के लिये यही दण्ड उचित था ।
मनुष्य को उचित है कि वह अच्छी़ तरह देखे, जाने, सुने और उचित परीक्षा किये बिना कोई भी कार्य न करे । अन्यथा उसका वही परिणाम होता है जो इस कहानी के नाई का हुआ ।
बिना विचारे जो करे..की उक्ति नगरसेठ, नाई और भिक्षुकों पर अपने अपने तरीके से सिद्ध हुयी । बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताए की सीख को भुलाकर तीनों कहानियों के पात्रों ने अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार कष्ट पाया ।
Note: बिना विचारे जो करे मूलतः कविराय गिरिधर का एक कुण्डलिया है, जो वस्तुतः पंचतन्त्र की प्रसिद्ध कथाओं के कुपरिक्षितकारकं नामक अध्याय पर आधारित है। उपरोक्त कहानी भी वहीँ से प्रेरित है।
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