
नया विवाह-हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान नक्षत्र प्रेमचंद की उन रचनाओं में से है जो मानव मनोविज्ञान की असंख्य अनसुलझी पहेलियों में से एक कि ” आखिर एक स्त्री का मन क्या चाहता है” पर प्रकाश डालती है।
कई अभागे पुरुष एक तरफ तो अपनी उस सहधर्मिणी के मन को ही नहीं समझ पाते जो उनके सुख-दुःख में साए की तरह उनके साथ रहते हुए अपना पूरा जीवन उनके ऊपर न्योंछावर कर देती है और दूसरी तरफ परस्त्रियों की लालसा में अनिष्ट को न्योंता दे बैठते हैं ।
हमारे समाज में न जाने कब से बेमेल विवाह होते रहे हैं, आज भी होते हैं। लेकिन पूर्णतः आपसी सहमति के बिना किये गए विवाह, खासतौर से तब जब कि महिला उससे सहमत न हो, कैसे मात्र एक छलावा बन कर रह जाते हैं, प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से इस ओर बखूबी इशारा किया है।
लालाजी की लीला
हमारी देह पुरानी है. लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता है। नये रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरंतन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में ,एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भाँति, गूंजता रहता है और यह सौ साल की बुढ़िया आज भी नवेली दुल्हन बनी हुई है।
जब से लाला डंगामल ने नया विवाह किया है, उनका यौवन नये सिरे से जाग उठा है।
जब पहली स्त्री (लीला) जीवित थी, तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रातः से दस-ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दूकान चले जाते।
वहाँ से एक बजे रात बोलौटते, थके-माँदे सो जाते, यदि लीला कभी कहती, जरा और सबेरे आ जाया करो, तो बिगड जाते और कहते-तुम्हारे लिए क्या दूकान छोड़ दूँ, या रोजगार बंद कर दूँ? यह वह जमाना नही है कि एक लोटा जल चढ़ाकर लक्ष्मी प्रसन्न कर ली जायँ। आज उनकी चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है, तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता। लीला बेचारी चुप हो जाती।
अभी छ: महीने की बात है। लीला को ज्वर चढ़ा हुआ था। लालाजी दूकान जाने लगे, तब उसने डरते-डरते कहा था-देखो, मेरा जी अच्छा नहीं है। जरा सबेरे आ जाना।
डंगामल ने पगड़ी उतार कर खूटी पर लटका दी और बोले-अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाय, तो मैं दूकान न जाऊँगा।
लीला हताश होकर बोली-मैं दूकान जाने को तो नहीं मना करती। केवल जरा सबेरे आने को कहती हूँ।
‘तो क्या मैं दूकान पर बैठा मौज किया करता हूँ?
लीला इसका क्या जवाब देती? पति का यह स्नेह-हीन व्यवहार उसके लिए कोई नयी बात न थी। इधर कई साल से उसे इसका कठोर अनुभव हो रहा था कि उसकी इस घर में कद्र नहीं है। वह अक्सर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर वह अपना कोई अपराध न पाती।
वह पति की सेवा अब पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हल्का करने की बराबर चेष्टा करती रहती, बराबर प्रसन्नचित्त रहती; कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती। अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी, तो इसमें उसका क्या अपराध था?
किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती है? अगर अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था, तो इसमें उसका क्या दोष? उसे बेकसूर क्यों दण्ड दिया जाता है।
उचित तो यह था कि 25 साल का साहचर्य जब एक गहरी मानसिक और आत्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता है जो पके फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादा मीठा, ज्यादा सुंदर हो जाता है। लेकिन लालाजी का वणिक-हृदय हर पदार्थ को वाणिज्य की तराजू से तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती है न बच्चे, तब उसके लिए गोशाला ही सबसे अच्छी जगह है।
उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि घर की मालकिन बनी रहे आराम से खाए और पड़ी रहे । उसे अख्तियार है चाहे जितने जेवर बनवाये, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दूर रहे ।
मानव प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डंगामल जिस आनंद से लीला को वंचित रखना चाहते थे जिसकी उसके लिए कोई जरूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते थे।
लीला 40 वर्ष की होकर बूढ़ी समझ ली गयी थी, किन्तु वे तैंतालीस के होकर अभी जवान ही थे, जवानी के उन्माद और उल्लास से भरे हुए।
लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोगन की आड़ लेती, तब लालाजी उसके बूढ़े नखरों से और भी घृणा करने लगते ।
वे कहते- वाह री तृष्णा ! सात लड़कों की तो माँ हो गयी, बाल खिचडी हो गए, चेहरा धुले हए फलालैन की तरह सिकुड़ गया, मगर आपको अभी महावर,सेंदुर, मेंहदी,उबटन की हवस बाकी ही है।
औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र है ! न जाने क्यों बनाव-सिंगार पर इतना जान देती हैं? पूछो, अब तुम्हें और क्या चाहिए। क्यों नहीं मान लेती कि जवानी विदा हो गयी और इन उपादानों से वह वापस नहीं बुलाई जा सकती ।
लेकिन वे खुद जवानी का स्वप्न देखते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शांत नहीं हुयी थी । जाड़ों में रसों और पाकों का सेवन करते रहते थे। हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डाक्टर से मंकीग्लैंड के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहे थे।
लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर-स्वर में पूछा- कुछ बतला सकते हो। कै बजे आओगे?
लालाजी ने शांत भाव से पूछा-तुम्हारा जी आज कैसा है?
लीला क्या जवाब दे? अगर कहती है कि बहुत खराब है, तो शायद वे महाशय वहीं बैठ जाएँ और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकालें।
अगर कहती है कि अच्छी हूँ, तो शायद निश्चिंत होकर दो बजे तक कहीं खबर लें। इस दुविधा में डरते-डरते। बोली-अब तक तो हलकी थी, लेकिन अब कुछ भारी हो रही है।
तुम जाओ, दूकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हाँ, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना। लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, जी घबराता है!
सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा-बारह बजे तक जरूर आ जाऊँगा! लीला का मुख धूमिल हो गया। उसने कहा-दस बजे तक नही आ सकते?
‘साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।’
‘नहीं, साढ़े दस।’
‘अच्छा, ग्यारह बजे।
लाला वादा करके चले गये, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा । इस निमंत्रण को कैसे इनकार कर देते। जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहाँ की भलमनसाहत है कि आप उसका निमंत्रण अस्वीकार कर दें।
लालाजी मुजरा सुनने चले गये, दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में जाकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती प्रतिक्षण विकल-वेदना का अनुभव करती हुई न-जाने कब सो गयी थी।
अंत को इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ा। लालाजी को उसके मरने का बड़ा दुःख हुआ। मित्रों ने समवेदना के तार भेजे। एक दैनिक पत्र ने शोक प्रकट करते हुए लीला के मानसिक और धार्मिक सद्गुणों का खूब बढाकर वर्णन किया।
लाला जी ने इन सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद दिया और लीला के नाम से बालिका-विद्यालय में पाँच वजीफे प्रदान किये तथा मृतक भोज तो जितने समारोह से किया गया, वह नगर के इतिहास में बहुत दिनों तक याद रहेगा ।
लालाजी की आशा
लेकिन एक महीना भी न गुजरने पाया था कि लालाजी के मित्रों ने चारा डालना शुरू या और उसका यह असर हुआ कि छ: महीने की विधुरता के तप के बाद उन्होंने दूसरा कर लिया। आखिर बेचारे क्या करते? जीवन में एक सहचरी की आवश्यकता तो थी ही और इस उम्र में तो एक तरह से वह अनिवार्य हो गयी थी।
जब से नयी पत्नी आयी, लालाजी के जीवन में आश्यर्चजनक परिवर्तन हो गया। दूकान उतना प्रेम नहीं था। लगातार हफ्तों न जाने से भी उनके कारबार में कोई हर्ज नहीं होता था ।
जीवन के उपभोग की जो शक्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, अब वह छींटे पाकर सजीहो गयी थी; सूखा पेड़ हरा हो गया था, उसमें नयी-नयी कोपलें फूटने लगी थीं। मोटर नयी आ गयी थी, कमरे नये फर्नीचर से सजा दिये गये थे, नौकरों की संख्या बढ़ गयी थी, रेडियो आ पंहुचा था और प्रतिदिन नये-नये उपहार आते रहते थे।
लालाजी की बूढ़ी जवानी जवानों की जवानी से भी प्रखर हो गयी थी, उसी तरह जैसे बिजली का प्रकाश चंद्रमा के प्रकाश से ज्यादा स्वच्छ और मनोरंजक होता है।
लालाजी को उनके मित्र इस रूपांतर पर बधाइयाँ देते, तब वे गर्व के साथ कहते-भाई, हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेंगे। बुढ़ापा यहाँ आये तो उसके मुँह में कालिख लगाकर गधे पर उलटा सवार कराके शहर से निकाल दें। जवानी और बुढ़ापे को न-जाने क्यों लोग अवस्था से संबद्ध कर देते हैं। जवानी का उम्र से उतना ही संबंध है, जितना धर्म का आचार से, रुपये का ईमानदारी से, रूप का श्रृंगार से।
आजकल के जवानों को आप जवान कहते हैं? उनकी एक हजार जवानियों को अपने एक घंटे से भी न बदलूँगा। मालूम होता है उनकी जिंदगी में कोई उत्साह ही नहीं, कोई शौक नहीं। जीवन क्या है, गले में पड़ा हुआ एक ढोल है।
यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के हृदय-पटल पर अंकित करते रहते थे। उससे बराबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते।
लेकिन आशा को न जाने क्यों इन बातों में जरा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-टूल करने के बाद।
एक दिन लालाजी ने आकर कहा-चलो, आज बजरे पर दरिया की सैर करें।
वर्षा के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था, मेघ-मालाएँ अंतर्राष्ट्रीय सेनाओं की भाँति रंग-बिरंगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थीं। सड़क पर लोग मलहार और बारहमासा गाते टहलते थे। बागों में झूले पड़ गये थे।
आशा ने बेदिली से कहा-मेरा जी तो नहीं चाहता।
लालाजी ने मृदु-प्रेरणा के साथ कहा-तुम्हारा मन कैसा है जो आमोद-प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता? चलो, जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ, बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।
‘आप जाएँ। मुझे और कई काम करने हैं।’
“काम करने को आदमी हैं। तुम क्यों काम करोगी?’
महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठेंगे तो यों ही उठ जायेंगे। आशा अपने अवकाश का बड़ा भाग लाला जी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने में ही लगाती थी।
उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था का सबसे बड़ा सुख, रसना का स्वाद ही रह जाता है।
लाला जी की आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे वह दरिया की सैर को उनकी सेवा के लिए छोड़ रही है। एक लीला थी,“मान न मान” चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, ख्वामख्वाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।
स्नेह-भरे उलहने से बोले-तुम्हारा मन भी विचित्र है। अगर एक दिन सालन फीका ही रहा, ऐसा क्या तूफान आ जायगा? तुम तो मुझे बिलकुल निकम्मा बनाए देती हो। अगर तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊँगा।
आशा ने जैसे गले से फंदा छुड़ाते हुए कहा-आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा-घुमाकर मेरा मिजाज बिगाड देते हैं। यह आदत पड़ जाएगी, तो घर का धंधा कौन करेगा ?
मुझे घर के धंधे की रत्ती-भर भी परवा नहीं-बाल की नोक के बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिजाज बिगड़े और तुम इस गृहस्थी की चक्की से दूर रहो और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो? मैं चाहता हूँ, तुम मुझे तुम कहो, तू कहो, गालियाँ दो, धौल जमाओ।
तुम तो मुझे आप कहके जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो! मैं अपने घर में देवता नहीं,चंचल बालक बनना चाहता हूँ।’
आशा ने मुसकराने की चेष्टा करके कहा-भला, मैं आपको ‘तुम’ कहूँगी ?तुम बराबर वाले को कहा जाता है कि बड़ों को?
मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनायी होती, तो भी शायद लाला जी को इतना दुःख न होता जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ। उनका सारा उत्साह सारा उल्लास जैसे ठंडा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हई जोगिये रंग की चुनी हुई रेशमी चादर, वह तंजेब का बेलदार कुर्ता, जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे और सारा ठाट, कैसे उन्हें हास्यजनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मंत्र से उतर गया हो।
निराश होकर बोले-तो तुम्हें चलना है या नहीं?
‘मेरा जी नहीं चाहता।
‘तो मैं भी न जाऊँ? ‘
‘मैं आपको कब मना करती हूँ?’
‘फिर ‘आप’ कहा?’
आशा ने जैसे भीतर से जोर लगाकर कहा ‘तुम’ और उसका मुख-मण्डल लज्जा से आरक्त हो गया।
‘हाँ, इसी तरह ‘तुम’ कहा करो। तो तुम नहीं चल रही हो? अगर मैं कहूँ कि तुम्हें चलना पड़ेगा?’
‘तब चलूँगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है।
लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने से लगे।
खिसियाये हुए बाहर को चल पड़े; उस वक्त आशा को उन पर दया आ गयी। बोली- तो कब तक लौटोगे?
‘मैं नहीं जा रहा हूँ।
अच्छा, तो मैं भी चलती हूँ।
जैसे कोई जिद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरो से ठुकरा देता है. उसी तरह लालाजी ने मुँह बनाकर कहा-‘ तुम्हारा जी नहीं चाहता तो न चलो मैं आग्रह नहीं करता!
‘आप….नहीं, तुम बुरा मान जाओगे।
‘ आशा गयी, लेकिन उमंग से नहीं। जिस मामूली वेश में थी उसी तरह चल खड़ी हुई। न कोई सजीली साड़ी, न जडाऊ गहने, न कोई सिंगार, जैसे कोई विधवा हो।
ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुंझला उठते थे। ब्याह किया था. जीवन का आनंद उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक में तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए। अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ, तो तेल डालने से लाभ?
न-जाने इसका मन क्यों इतना और नीरस है, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो; कितना ही पानी डालो, उसमें हरी पत्तियों के दर्शन न होंगे। जड़ाऊ गहनों से भरी पिटारियाँ खुली हुई हैं। कहाँ-कहाँ से मँगवाये- दिल्ली से, कलकत्ते से, फ्रांस से। कैसी-कैसी बहुमूल्य साड़ियाँ रखी हुई हैं। एक नहीं, सैकड़ों। दरिद्र घर की लड़कियों में यही ऐब होता है। उनकी दृष्टि सदैव संकीर्ण रहती है। न खा सकें, न पहन सकें। न दे सकें। उन्हें तो खजाना भी मिल जाए, तो यही सोचती रहेंगी कि खर्च कैसे करें।
दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनंद न आया।
कई महीने तक आशा की मनोवृत्तियों को जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इसकी पैदाइश ही मुहर्रमी है। लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उसमें अधिक-से-अधिक लाभ उठाने की वणिक-प्रवृत्ति को कैसे त्याग देते? विनोद की नयी-नयी योजनाएँ पैदा की जाती-ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया है, गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निकलती, तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठाकर रख देना तो मूर्खता है।
लालाजी का खानसामा
इधर बूढ़ा महाराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था और उसकी जगह उसका सत्रह-अठारह साल का जवान लड़का आ गया था-कुछ अजीब गँवार था, बिलकुल झंगड़, उजड्ड। कोई बात ही न समझता था। जितने फुलके बनाता, उतनी ही तरह के। हाँ, एक बात समान होती। सब बीच में मोटे होते, किनारे पतले। दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय, कभी इतनी गाढ़ी जैसे दही। नमक कभी इतना कम कि बिलकुल फीकी, कभी इतना तेज कि नीबू का शाकीन।
आशा मुँह-हाथ धोकर चौके में पहुँच जाती और इस ढपोरशंख को ‘भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा-तुम कितने नालायक आदमी हो जुगल ! आखिर इतनी उम्र तक तुम घास खोदते रहे या भाड़ झोंकते रहे कि फुलके तक नहीं बना सकते? जुगल आँखों में आँसू भरकर कहता-बहूजी, अभी मेरी उम्र ही क्या है? सत्रहवाँ ही तो पूरा हुआ है!
आशा को उसकी बात पर हँसी आ गयी। उसने कहा-तो रोटियाँ पकाना क्या दस-पाँच साल में आता है?
आप एक महीना में सिखा दें बहूजी, फिर देखिए, मैं आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाए। जिस दिन मुझे फुलके बनाने आ जाएँगे, मैं आपसे कोई इनाम लूँगा। सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ, क्यों है न?
आशा ने हौसला बढ़ाने वाली मुसकराहट के साथ कहा-सालन नही वो बनाना आता है। अभी कल ही नमक इतना तेज था कि खाया न गया। मसाले में कचाँध आ रही थी।
‘मैं जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थीं?’
अच्छा तो जब मैं यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढ़िया पकेगा? ‘आप बैठी रहती हैं, तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है।
आशा को युगल की इन भोली बातों पर खूब हँसी आ रही थी। हँसी को रोकना चाहती थी, पर वह इस तरह निकली पड़ती थी जैसे भरी बोतल उड़ेल दी गयी हो।
‘और मैं नहीं रहती तब?’
‘तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठती है। वहाँ बैठकर अपनी तकदीर को रोती है ।‘
आशा ने हँसी को रोक कर पूछा-क्यों, रोती क्यों है?
‘यह न पूछिये बहूजी, आप इन बातों को नहीं समझेंगी।’
आशा ने उसके मुँह की ओर प्रश्न की आँखों से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गयी, पर न समझने का बहाना किया।
‘तुम्हारे दादा आ जाएँगे; तब तुम चले जाओगे?’
‘और क्या करूँगा बहूजी! यहाँ कोई काम दिलवा दीजिएगा, तो पड़ा रहँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूँगा। नहीं, नहीं बहूजी आप हट जाइये मैं पतीली उतार लूँगा। ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी, कहीं कोई दाग पड़ जाए, तो क्या हो?
आशा पतीली उतार रही थी। जुगल ने उसके हाथ से सँड़सी लेनी चाही।
दूर रहो। फूहड़ तो तुम हो ही। कहीं पतीली पाँव पर गिरा ली, तो महीनों झींकोगे।
जुगल के मुख पर उदासी छा गयी। आशा ने मुसकराकर पूछा-क्यों, मुँह क्यों लटक गया सरकार का?
जुगल रुआँसा होकर बोला-आप मुझे डाँट देती हैं, बहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता है। सरकार कितना ही घुड़कें, मुझे बिलकुल ही दुख नहीं होता। आपकी नजर कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता है।
आशा ने दिलासा दिया-मैंने तुम्हें डाँटा तो नहीं, केवल यही तो कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पड़े तो क्या हो?
‘हाथ तो आपका भी है। कहीं आपके ही हाथ से छूट पड़े तो?’
लाला डंगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा-आशा, जरा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुंदर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कमरे के सामने रखे जाएँगे। तुम यहाँ धुएँ-धक्कड़ क्यों हलाकान होती हो? इस लड़के से कह दो कि जल्दी महाराज को बुलाये नहीं तो मैं दूसरा आदमी रख लूँगा। महाराजों की कमी नहीं है। आखिर कब तक कोई रिआयत करे, गधे को जरा भी तमीज नहीं आयी। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को।
चूल्हे पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने में लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इंतजार कर रहा था। ऐसी हालत में भला कैसे गमले देखने जाती?
उसने कहा-जुगल रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेल डालेगा।
लालाजी ने कुछ चिढ़कर कहा-अगर रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा, तो निकाल दिया जाएगा! आशा अनसुनी करके बोली-दस-पाँच दिन में सीख जाएगा, निकालने की क्या जरूरत है?
“तुम आकर बतला दो, गमले कहाँ रखे जाएँ?”
कहती तो हूँ, रोटियों बेलकर आयी जाती हूँ ।
मैं कहता हूँ तुम रोटियाँ मत बेलो।
आप तो खामख्वाह जिद करते हैं।
लालाजी सन्नाटे में आ गये। आशा ने कभी इतनी रुखाई से उन्हें जवाब न दिया था। केवल रुखाई न थी, इसमें कटुता भी थी। लज्जित होकर चले गये। उन्हें ऐसा क्रोध आ रहा था कि इन गमलों को तोड़कर फेंक दें और सारे पौधों को चूल्हे में डाल दें।
जुगल ने सहमे हुए स्वर में कहा-आप चली जायें बहूजी, सरकार बिगड़ जाएंगे।
“बको मत जल्दी-जल्दी फुलके सेंको”; नहीं तो निकाल दिये जाओगे। और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपडे बनवा लो। भिखमंगों की-सी सूरत बनाये घूमते हो। और बाल क्यों इतने बढ़ा रखे है? तुम्हें नाई भी नहीं जुड़ता?
जुगल ने दूर की बात सोची। बोला-कपड़े बनवा लूँ. तो दादा को हिसाब क्या दूँगा?
अरे पागल! मैं हिसाब में नहीं देने कहती। मुझसे ले जाना।
जुगल काहिलपन की हँसी हँसा।
आप बनवायेंगी, तो अच्छे कपड़े लूंगा। खद्दर के मलमल का कुर्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर, अच्छा-सा चप्पल।
आशा ने मीठी मुस्कान से कहा-और अगर अपने दाम दे कर बनवाने पड़े। तब कपड़े ही क्यों बनवाऊँगा?’
‘बड़े चालाक हो तुम।’
जुगल ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया-आदमी अपने घर में सूखी रोटियाँ खाकर सो रहता है, लेकिन दावत में तो अच्छे-अच्छे पकवान ही खाता है। वहाँ भी यदि रूखी रोटियाँ मिलें, तो वह दावत में जाए ही नहीं।
यह सब मैं नहीं जानती। एक गाढ़े का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने पैसे ऊपर से ले लो। |
जुगल ने मान करके कहा-रहने दीजिए। मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहन कर निकलूंगा. तब तो आपकी याद आवेगी। सड़ियल कपड़े पहन कर तो और जी जलेगा।
‘तुम स्वार्थी हो, मुफ्त के कपड़े लोगे और साथ ही बढ़िया भी।
‘जब यहाँ से जाने लगूं, तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।’
‘मेरा चित्र लेकर क्या करोगे?’
‘अपनी कोठरी में लगाऊँगा और नित्य देखा करूँगा। बस, वही साड़ी पहन कर खिंचवाना, जो कल पहनी थी और वही मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगी नंगी सूरत अच्छी नहीं लगती। आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं।’
‘तो तुम्हें गहने अच्छे लगते हैं?’
‘बहुत।’
लाला जी का भ्रम
लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा-अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकी जुगल ? अगर कल से तूने अपने-आप अच्छी रोटियाँ न पकायीं तो मैं तुझे निकाल दूंगा।
आशा ने तुरंत हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता का रोगन था, बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी। लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया था।
उसने गमलों को क्षुब्ध आँखों से देखा। उसने कहा-मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूँगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब! कितने सुन्दर पौधे हैं, वाह ! इनके हिन्दी नाम भी मुझे बतला देना!
लालाजी ने छेड़ा-सब गमले क्या करोगी? दस-पाँच पसंद कर लो। शेष मैं बाहर रखवा दूंगा।
‘जी नहीं। मैं एक भी न छोडूंगी। सब यहीं रखे जाएँगे।’
‘बड़ी लालचिन हो तुम।
‘लालचिन ही सही। मैं आपको एक भी न दूंगी।’
‘दो-चार तो दे दो? इतनी मेहनत से लाया हूँ !’
‘जी नहीं, इनमें से एक भी न मिलेगा।
दूसरे दिन आशा ने अपने को आभूषण से खूब सजाया और फिरोजी साडी पहनकर निकली, तब लालाजी की आँखों में ज्योति आ गयी। समझे, अवश्य ही अब उनके जादू कुछ-कुछ’ चल रहा है। नहीं तो उनके बार-बार आग्रह करने पर भी, बार-बार याचना करने पर भी, उसने कोई आभूषण न पहना था। कभी-कभी मोतियों का हार गले में डाल लेती थी, वह भी ऊपरी मन से। आज वह आभूषणों से अलंकृत होकर फूली नहीं समाती, इतरायी जाती है; मानो कहती हो, देखो मैं कितनी सुंदर हूँ !
पहले जो बंद कली थी, वह आज खिल गयी थी।
लालाजी पर घड़ों का नशा चढ़ा हुआ था। वे चाहते थे, उनके मित्र और बंधु-वर्ग आकर इस सोने की रानी के दर्शनों से अपनी आँखें ठंडी करें। देखें कि वह कितनी सुखी, संतुष्ट और प्रसन्न है। जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थीं, वे आँखें खोलकर देखें कि डंगामल कितना सुखी है। विश्वास, अनुराग और अनुभव ने चमत्कार किया है?
उन्होंने प्रस्ताव किया-चलो, कहीं घूम आयें। बड़ी मजेदार हवा चल रही है।
आशा इस वक्त कैसे जा सकती थी। अभी उसे रसोई में जाना था, वहाँ से कहीं बारह-एक बजे फुर्सत मिलेगी। फिर घर के दूसरे धंधे सिर पर ‘सवार’ हो जाएँगे। सैर-सपाटे के पीछे क्या घर चौपट कर दे?
सेठजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा-नहीं, आज मैं तुम्हें रसोई में न जाने दूँगा।
‘महाराज के किये कुछ न होगा।’
‘तो आज उसकी शामत भी आ जाएगी।”
आशा के मुख पर से वह प्रफुल्लता जाती रही। मन भी उदास हो गया। एक सोफे पर लेट कर बोली-आज न-जाने क्यों कलेजे में मीठा-मीठा दर्द हो रहा है। ऐसा दर्द कभी नहीं होता था।
सेठजी घबरा उठे।
‘यह दर्द कब से हो रहा है?’
‘हो तो रहा है रात से ही, लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर से होने लगा है। रह-रह कर जैसे चुभन हो जाती है।’
सेठजी एक बात सोच कर दिल-ही-दिल में फूल उठे। अब वे गोलियाँ रंग ला रही हैं। राजवैद्य जी ने कहा भी था कि जरा सोच-समझकर इनका सेवन कीजिएगा।
क्यों न हो; आखिर खानदानी वैद्य हैं। इनके बाप बनारस के महाराज के चिकित्सक थे। पुराने और पराक्षित नुस्खे हैं इनके पास ! उन्होने कहा-तो रात से ही यह दर्द हो रहा है? तुमने मुझसे कहा नहीं। नहीं तो वैद्यजी से कोई दवा मंगवाता।
‘मैंने समझा था, आप-ही-आप अच्छा हो जाएगा, मगर अब बढ़ रहा है।
‘कहाँ दर्द हो रहा है? जरा देखूँ कुछ सूजन तो नहीं है?
सेठजी ने आशा के आँचल की तरफ हाथ बढाया।
आशा ने शर्माकर सिर झुका लिया। उसने कहा- ‘यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं अपनी जान से मरती हूँ तुम्हें हँसी सूझती है। जाकर कोई दवा ला दो।’
सेठजी अपने पुसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हुए जितना रायबहादुरी पाकर होते। इस विजय का डंका पीटे बिना उन्हें कैसे चैन आ सकता था? जो लोग उनके विवाह के विषय में द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे थे, उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया है और इतनी जल्दी !
पहले पंडित भोलानाथ के पास गये और भाग्य ठोंक कर बोले- भई, मैं तो बडी विपत्ति में फंस गया। कल से उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। कुछ बुद्धि काम नहीं करती। कहती हैं. ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।
भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी न दिखायी।
सेठजी यहाँ से उठकर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुँचे और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक-संवाद कहा।
फागमल बड़ा शोहदा था। मुसकराकर बोला-मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती है।
सेठजी की बाँछे खिल गयीं। उन्होंने कहा-मैं अपना दुःख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती है, जरा भी आदमीयत तुममें नहीं है।
‘मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। इसमें दिल्लगी की क्या बात है? वे हैं कमसिन कोमलांगी,आप ठहरे पुराने लठैत, दंगल के पहलवान ! बस ! अगर यह बात न निकले तो मैं मूंछें मुंडा लूँ।
सेठजी की आँखें जगमगा उठीं। मन में यौवन की भावना प्रबल हो उठी और उसके साथ ही मुख पर भी यौवन की झलक आ गयी। छाती जैसे कुछ फैल गयी। चलते समय उनके पग कुछ अधिक मजबूती से जमीन पर पड़ने लगे और सिर की टोपी भी न जाने कैसे बाँकी हो गयी। आकृति से बाँकपन की शान बरसने लगी।
लालाजी के पीछे ..
जुगल ने आशा को सिर से पाँव तक जगमगाते देखकर कहा-बस बहूजी आप इसी तरह पहने-ओढ़े रहा करें। आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूंगा।
आशा ने नयन-बाण चला कर कहा-क्यों, आज यह नया हुक्म क्यों ? पहले तो तुमने कभी मना नहीं किया।
‘आज की बात दूसरी है।’
‘जरा सुनूँ, क्या बात है?
‘मैं डरता हूँ, आप कहीं नाराज न हो जाएँ?’
‘नहीं-नहीं, कहो, मैं नाराज न होऊँगी।’
‘आज आप बहुत सुंदर लग रही है।
लाला डंगामल ने असंख्य बार आशा के रूप और यौवन की प्रशंसा की थी, मगर उनकी प्रशंसा में उसे बनावट की गंध आती थी। वह शब्द उनके मुख से निकल कर कुछ ऐसे लगते थे जैसे कोई पंगु दौड़ने की चेष्टा कर रहा हो। जुगल के इन सीधे शब्दों में एक उन्माद था, नशा था. एक चोट थी? आशा की सारी देह प्रकम्पित हो गयी।
‘तुम मुझे नजर लगा दोगे जुगल, इस तरह क्यों घूरते हो?’
‘जब यहाँ से चला जाऊँगा, तब आपकी बहुत याद आयेगी।’
‘रसोई पका कर तुम सारे दिन क्या करते हो। दिखायी नहीं देते।
‘सरकार रहते हैं, इसीलिए नहीं आता। फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा है, देखिये भगवान कहाँ ले जाते हैं।’
आशा की मुख-मुद्रा कठोर हो गयी। उसने कहा-कौन तुम्हें जवाब देता है ?
‘सरकार ही तो कहते हैं, तुझे निकाल दूंगा।’
‘अपना काम किये जाओ, कोई नहीं निकालेगा। अब तो तुम फुलके भी अच्छे बनाने लगे।
‘सरकार हैं बड़े गुस्सेवर!’
‘दो-चार दिन में उनका मिजाज ठीक किये देती हूँ।
आपके साथ चलते हैं तो आपके बाप से लगते हैं।’
‘तुम बड़े मुँहफट हो। खबरदार, जबान सँभाल कर बातें किया करो।’
किंतु अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उनके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भाँति उसके अंदर से निकला पड़ता था।
जुगल ने फिर उसी निर्भीकता से कहा-मेरा मुँह कोई बंद कर ले, यहाँ तो सभी यही कहते हैं। मेरा ब्याह कोई 50 साल की बुढ़िया से कर दे, तो मैं घर छोड़ कर भाग जाऊँ। या तो खुद जहर खा लूँ या उसे जहर देकर मार डालूँ। फाँसी ही तो होगी?
आशा उस कृत्रिम क्रोध को कायम न रख सकी। जुगल ने उसकी हृदय-वीणा के तारों पर मिजराव की ऐसी चोट मारी थी कि उससे बहुत ज़ब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आयी। उसने कहा-भाग्य भी तो कोई वस्तु है।
‘ऐसा भाग्य जाए भाड़ में।’
‘तुम्हारा ब्याह किसी बुढ़िया से ही करूँगी, देख लेना !’
‘तो मैं भी जहर खा लूँगा। देख लीजिएगा।
‘क्यों बुढ़िया तुम्हें जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।’
‘यह सब माँ का काम है। बीबी जिस काम के लिए है, उसी काम के लिए है।’
‘आखिर बीबी किस काम के लिए है?’
मोटर की आवाज आयी। न-जाने कैसे आशा के सिर का अंचल खिसककर कंधे पर आ गया। उसने जल्दी से अंचल खींच कर सिर पर कर लिया और यह कहती हुई अपना कमरे की ओर लपकी कि लाला भोजन कर के चले जाएँ, तब आना।
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