वीर बर्बरीक- Legendary saga of a hero
December 6, 2022 | by storykars

अपनी शरण में आने वाले हर हारे हुए को जीत का वचन देने वाले बाबा खाटू श्याम जी आज लाखों भक्तों के ह्रदय में बसते हैं। कहते हैं कि खाटू श्याम ही बर्बरीक हैं , यद्यपि बहुत सी लोककथाएं बताती हैं कि बर्बरीक और खाटू श्याम अलग अलग चरित्र हैं !
पढ़ें , मोर्वीनंदन बर्बरीक की कहानी जो निःसंदेह महाभारत काल के ऐसे योद्धा थे जिन्होंने अगर महाभारत के युद्ध में हिस्सा ले लिया होता तो युद्ध के परिणाम ही उलट जाते। बर्बरीक, जिनकी वीरता और त्याग का सम्मान करते हुए स्वयं श्रीकृष्ण नें उन्हें कल्प के अंत तक अपने ही नाम से पूजे जाने का वरदान दिया !
वीर बर्बरीक- परिचय
वीर बर्बरीक की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे अति बलशाली गदाधारी भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच और दैत्य मूर की पुत्री मोरवी के पुत्र हैं और कहते हैं कि जिस घोड़े की वे सवारी करते थे वह नीले रंग का था। स्कन्द पुराण के कौमरिका खंड में बर्बरीक की कथा आती है।
महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मुर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ। कामकटंककटा को “मोरवी” नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को तीन पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई सबसे बड़े पुत्र के बाल बब्बर शेर की तरह होने के उसका नाम बर्बरीक रखा गया।घटोत्कच और मोरवी के अन्य दो पुत्रों के नाम अंजनपर्व और मेघवर्ण रखा गया।
बर्बरीक के जन्म के पश्चात् महाबली घटोत्कच इन्हें भगवान् श्री कृष्ण के पास द्वारका ले गये और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से कहा— हे पुत्र मोर्वेय! जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो। श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया। वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा— गुरूदेव! इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग क्या है?वीर बर्बरीक के इस निश्छ्ल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा— हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है।
तुम्हें बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी। अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो। तत्पश्चात् बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र, विद्या हासिल कर, महीसागर क्षेत्र में नवदुर्गा की आराधना की। सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। यहाँ उन्हें “चण्डील” नाम मिला। माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयीं।
जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उनका यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं। अग्निदेव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया। कहते हैं कि माँ जगदम्बा द्वारा बर्बरीक को दिए गए वे तीन अचूक बाण नोंक की तरफ से पोले थे। विजय ब्राह्मण द्वारा सम्पादित यज्ञ के कुण्ड की भस्म में साक्षात् माँ दुर्गा की शक्ति रची बसी हुयी थी । उसी भस्म को बर्बरीक ने बाणों के अग्र भाग में भर लिया था ।बर्बरीक ने पृथ्वी और पाताल के बीच रास्ते में नाग कन्याओं का वरण प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का प्रण लिया है।
मां सैव्यम् पराजितः
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे और माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।श्री कृष्ण को बर्बरीक के अपनी माता को दिए हुए वचन के बारे में जानकारी हो चुकी थी। अतः उन्होंने ब्राह्मण भेष धारण कर उन्हें रोका और जब पूछा कि-“ हे वीर, तुम योद्धावेश धारण कर कहाँ जा रहे हो ?” तो उन्होंने अपनी माता को दिए वचन और अपने संकल्प के बारे में बताया ।
बर्बरीक की बातों को सुनकर ब्राह्मण वेश धारी श्रीकृष्ण ने अविश्वास प्रकट किया कि वह मात्र तीन बाणों के बल पर युद्ध में हारते हुए पक्ष को जिताने आए है ? बर्बरीक ने कहा कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। तीनों बाण तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश करने में सक्षम हैं । यह सुनकर भगवान् कृष्ण ने फिर से अविश्वास प्रकट करते हुए कहा कि “ हे वीर, यदि तुम सत्य कहते हो तो मेरे मन का संशय दूर करने के लिए इस पीपल के वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ।”उस समय वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे।
वीर बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और माँ जगदम्बा का स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपनी एड़ी के नीचे छुपा लिया था।
कहते हैं कि उस बाण के घर्षण के कारण श्रीकृष्ण के तलुए में घाव हो गया था जो कालांतर में जरा नामक व्याध द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की देहत्याग लीला का भी कारण बना ।
श्रीकृष्ण ने अपना पैर हटा लिए और वह बाण उस पीपल वृक्ष के अंतिम बचे हुए पत्ते को बींध कर वापस वीर बर्बरीक के तूणीर में पहुँच गया । श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है । और बर्बरीक क्योंकि अपनी माता को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन देकर आया है तो ऐसे में, वचनबद्ध होने के कारण उसे न चाहते हुए भी कौरवों का साथ देना ही होगा,और यदि बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा। अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा।
ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। बर्बरीक ने उनसे इच्छा व्यक्त की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।श्री कृष्ण ने उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया, जहाँ से वीर बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध को देख सकते थे।
फाल्गुन माह की द्वादशी को वीर बर्बरीक ने अपने शीश का दान दिया था इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।
महाभारत युद्ध की समाप्ति पर प्रश्न उठा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर वीर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक को वरदान दिया कि कलियुग में तुम पूजे जाओगे।
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक का सर क्यों काटा ?
महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। तब माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे। भगवान श्री कृष्ण ने यह सोचकर कि यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो पाण्डवों की हार निश्चित हो जाएगी वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया। उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी, तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयीं देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योद्घाटन सभी उपस्थित योद्धाओं के समक्ष निम्न प्रकार किया—
देवियों ने कहा: “द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित होकर पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित होकर बोलीं— “हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ।पहाड़, नदी, नाले एवं समस्त मानव जाति का भार मैं सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन भली भाँति करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से अति दु:खी हूँ।आपलोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपके शरण में आयी हूँ।”
गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा-सा छा गया। ब्रह्मा जी ने कहा— “हम सभी को भगवान् विष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।” तभी देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने गर्वोक्ति करते हुए कहा— “हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं, जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें। उसका वध तो मैं अकेला ही कर सकता हूँ।” इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले— “मूढ़ ! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तेरे अहंकार ने इस देवसभा को चुनौती दी है। अपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! तुम इस देवसभा से अभी पृथ्वी पर जा गिरोगे।”
“तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्मयुद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे।” ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर-चूर हो गया। वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा ।
विनम्र भाव से बोला— “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आपके शरणागत हूँ। त्राहिमाम! त्राहिमाम! रक्षा कीजिए प्रभु!” यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े, वह बोले— “वत्स! मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ। हाँ, इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा।
फलतः तुम्हें कलयुग में देवताओं के समान पूजनीय होने का वरदान स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भगवान से प्राप्त होगा।”तत्पश्चात् भगवान् श्री हरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा—
तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !
शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)
भावार्थ: “उस समय देवताओं की सभा में श्री हरि ने कहा— हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देवरूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे।”
वहाँ उपस्थित सभी लोगों को इतना वृत्तान्त सुनाकर देवी चण्डिका ने पुनः कहा— “अपने अभिशाप को वरदान में परिणति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गये। कालान्तर में इस पृथ्वी लोक में सूर्यवर्चा ने ही महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के संसर्ग से बर्बरीक के रूप में जन्म लिया। इसलिए आप सभी को इस बात पर कोई शोक नहीं करना चाहिए और इसमें श्री कृष्ण का कोई दोष नहीं है।”
इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!
यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !
उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)
भावार्थ: “ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त (वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर राहू के शीश की तरह अजर और अमर बना दिया और इस जागृत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा— “मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आपलोग इसकी स्वीकृति दीजिए।”
ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !
यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !
तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)
भावार्थ: तत्पश्चात् मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा— ” हे वत्स! जबतक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जबतक सूर्य, चन्द्रमा है, तबतक तुम सभी के लिए पूजनीय होओगे।
देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !
स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)
भावार्थ: “तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियों की मर्यादा जैसी है वैसी ही बनाए रखोगे”
बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !
पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)
भावार्थ: “तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात, पित्त, कफ से पीड़ित रोगी होंगे, उनका रोग बड़ी सरलता से मिटाओगे”
इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !
इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)
भावार्थ: “और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो, इस भाँती वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अंतर्ध्यान कर गयीं।”
बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !
देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !
ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)
भावार्थ: “वीर बर्बरीक का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं उनके धड़ को शास्त्रीय विधि से अंतिम संस्कार कर दिया गया ।”
योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुईं १४ देवियों के द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर कर दिया।भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान दिया।वीर बर्बरीक ने भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया, जिसे श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की एवं उनके धड़ का अंतिम संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया…
वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड ‘कौमारिक खंड'” में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है।
ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में “माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड” के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।
कलियुग में
एक गाय, एक निश्चित स्थान पर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया।तभी खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।
एक अन्य लोक कथा यह भी है कि खाटू श्याम दरअसल और कोई नहीं बल्कि खाटू निवासी रूप सिंह चौहान के पूर्वज थे जिनका नाम श्याम सिंह था। बाबा श्याम सिंह ,जिन्होंने भगवद्भक्ति के फलस्वरूप सिद्धियाँ पाईं थी, जब परलोकगामी हुए तो किसी कारण से उनके वंश के लोगों ने उनकी पूजा इत्यादि करना शुरू कर दिया। लंबे समय तक अर्चित होकर और भोग इत्यादि पाकर इनकी प्रतिष्ठा लोकदेवता जैसी हो गई।
यह जानने योग्य है कि मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है।
आज, खाटूश्याम, परिवारों की एक बड़ी संख्या के कुलदेवता हैं। साथ ही साथ उत्तर भारत में भी इनके लाखों भक्त हैं।
Important FAQ Khatu Shyam
Q.- Distance of jaipur to khatu shyam ?
जयपुर से खाटू श्याम जी का मंदिर लगभग 80 किलोमीटर दूर है। ओला या टैक्सी या अपनी गाड़ी से यहाँ दो से ढाई घंटे में पंहुचा जा सकता है ।
Q.- What about khatu shyam idol खाटू श्याम जी की मूर्ति ?
खाटूश्यामजी की मूर्ति खुदाई के दौरान खाटू में ही प्राप्त हुयी थी। मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बना है।
Q.- Khatu Shyam online donation
खाटूश्याम मंदिर की आधिकारिक वेबसाईट से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर मंदिर में online donation की कोई व्यवस्था नहीं है । दर्शन हेतु ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन होते हैं, जिनकी जानकारी आधिकारिक वेबसाईट पर उपलब्ध है ।
Q.- खाटूश्याम में धर्मशाला या ठहरने की व्यवस्था कैसी है ? dharamshala in khatu shyam ji ?
बाबा खाटूश्याम की नगरी में 200 से अधिक धर्मशालाएं व् होटल इत्यादि हैं जिनकी जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है ।
लेकिन ध्यान रखने वाली बात यह है कि एकादशी और फाल्गुन में यहाँ अत्यधिक दर्शनार्थी होने के कारण तत्काल कमरा मिलना थोडा कठिन है ।
इसीलिए ऐसे समय में जाने से पूर्व ऑनलाइन बुकिंग अवश्य करवा लें ।
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